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यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकत्ताने इन श्लोकोंको मनुके नामसे उद्धृत “किया हो और उस ग्रन्थ के आधारसे टीकाकारने भी उद्धृत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धृत किये हुए मनुस्मृतिके श्लोंकोंको, कोई नया लेखक अपने ग्रन्थमें भी लिख दे।
याज्ञवल्क्यस्मृतिके श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसको प्राचीनतामें तो बहुत ही सन्देह है । वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचना जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नामसे तो टीकाकारने दो चार नहीं १७० के लगभग श्लोक उद्धृत किये हैं। तो क्या टीकाकारने वे सबके सब ही मूलकताको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे ? और मूलकर्ता तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं । उन्होंने तो अपने यशस्तिलक में न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उद्धृत करके अपने विषयका प्रतिपादन किया है। ___ सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है कि टीकाकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र ( वाक्य ) गढ़कर मूलमें शामिल कर दिये हैं । विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लिखे २१ वें, २३ वें और २५ वें सूत्रोंको आप टीकाकर्ताका बतलाते हैं:--
१--" वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽघोरो गृहस्थाः॥" २१
२-" बालाखिल्य औदम्बरी वैश्वानराः सद्यःप्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः ॥२३
३-" कुटीरकवह्वोदक-हंस-परमहंसा यतयः" ॥ २५ __ इसका कारण आपने यह बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमें और हस्तलिखित मुलपुस्तक में ये सूत्र नहीं हैं। परन्तु इस कारणमें कोई तथ्य नहीं दिखलाई देता क्योंकि
१-जब तक दश पाँच हस्तलिखित प्रतियाँ प्रमाणमें पेश न की जा सकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मूलपुस्तकमें जो पाठ नहीं हैं वे मूलकता नहीं हैं-ऊपरसे जोड़ दिये गये हैं। इस तरहके हीन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं ।
२-मूलक ने पहले वर्गों के भेद बतलाकर फिर आश्रमोंके भेद बतलाये हैं--ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति । फिर ब्रह्मचारियोंके उपकुर्वाण, नैष्ठिक, और कृतुप्रद ये तीन भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं। इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यतियोंके लक्षण क्रमसे दिये हैं ; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियों के समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यतियों के भी
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