SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृतिमें तो नहीं मिलते हैं; परन्तु हेमाद्रि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थोंमें मनु, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धृत किये हैं। इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये हैं, जिनकी कूल्लूक भट्टने भी टीका नहीं की है । हमारे जैनग्रन्थों में भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है। उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं० टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पाँचवें अधिकारमें मनुस्मृति के तान श्लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृति में नहीं हैं - । इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमें भो मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धृत हैं जिनमेंसे वर्तमान मनुस्मृतिमें केवल २ मिलते हैं, शेष ५ नहीं हैं।* शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकी बनी हुई है--पाँच छः सौ वर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती. । शुक्रका प्राचीन ग्रन्थ इससे कोई पृथक् ही था + । कौटिलीय अर्थशास्त्र में लिखा है कि शुक्रके मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसीमें सब विद्यायें गर्भित हैं; परन्तु वर्तमान शुक्रनीतिका कर्ता चारों विद्याओंको राजविद्या मानता है---' विद्याश्चतस्र एवेताः' आदि ( अ० १, श्लो० ५१ )। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है । इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढ़कर मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं। हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्मृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए उस समय यह न उपलब्ध होगी। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले मूलका श्रीसोमदेवसूरिने भी मनुके बीसों श्लोक उद्धृत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृतिमें मिलते हैं; अतएव टीकाकारके समय में भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जा प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोंकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता। ___x देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण पृष्ठ. २०१ । __* 'द्विजवदनचपेट' संस्कृत ग्रन्थ है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं. कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने 'जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था। + देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy