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________________ या सोमदेवविदुषा विहिता विभूषा वाग्देवता बहतु सम्प्रति तामनर्घाम् ॥ -प० आ०, पृ० २६६ । चिरकालसे शास्त्रसमुद्रके बिल्कुल नीचे डूबे हुए शब्द-रत्नोंका उद्धार करके सोमदेव पण्डितने जो यह बहुमूल्य आभूषण (काव्य)बनाया है, उसे श्रीसरस्वती देवी धारण करें। इन उक्तियोंसे इस बातका आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणीके कवि थे और उनका उक्त महाकाव्य कितना महत्त्वपूर्ण है। पूर्वोक्त उक्तियोंमें अभिमानकी मात्रा रहने पर भी वे अनेक अंशोंमें सत्य जान पड़ती हैं । सचमुच ही यशस्तिलक शब्दरत्नोंका बड़ा भारी खजाना है और यदि माघकाव्यके समान कहा जाय कि इस काव्यको पढ़ लेने पर फिर कोई नया शब्द नहीं रह जाता, तो कुछ अत्युक्ति न होगी। इसी तरह इसके द्वारा सभी विषयोंकी व्युत्पत्ति हो सकती है । व्यवहारदक्षता बढ़ानेकी ती इसमें ढेर सामग्री है । महाकवि सोमदेवके वाक्कल्लोलपयोनिधि, कविराजकुंजर और गद्यपद्यविद्याधरचक्रवर्ती विशेषण, उनके श्रेष्ठकवित्त्वके ही परिचायक हैं। धर्माचार्य सोमदेव।। यद्यपि अभीतक सोमदेवसूरिका कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; परन्तु यशास्तिलकके अन्तिम दो आश्वास-जिनमें उपासकाध्ययन या श्रावकोंके आचारका निरूपण किया गया है-इस बातके साक्षी हैं कि वे धर्मके कैसे मर्मज्ञ विद्वान् थे। स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डके बाद श्रावकोंका आचारशास्त्र ऐसी उत्तमता, स्वाधीनता और मार्मिकताके साथ इतने विस्तृतरूपमें आजतक किसी भी विद्वान्की कलमसे नहीं लिखा गया है। जो लोग यह समझते हैं कि धर्मग्रन्थ तो परम्परासे चले आये हुए ग्रन्थों के अनुवादमात्र होते हैं-उनमें ग्रन्थकर्ता विशेष क्या कहेगा, उन्हें यह उपासकाध्ययन अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि धर्मशास्त्रोंमें भी मौलिकता और प्रतिभाके लिए कितना विस्तृत क्षेत्र है । खेद है कि जैनसमाजमें इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थके पठन पाठनका प्रचार बहुत ही कम है और अब तक इसका कोई हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ है । नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें लिखा है: सकलसमयतकै नाकलंकोसि वादी न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्तदेवः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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