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________________ - समुद्रसे निकले हुए असहाय, अनादर्श और सजनोंके हृदयकी शोभा बढ़ानेवाले रत्नकी तरह मुझसे भी यह असहाय ( मौलिक ), अनादर्श ( बेजोड़) और हृदयमण्डन काव्यरत्न उत्पन्न हुआ। कर्णालिपुटैः पातुं चेतः सूक्तामृते यदि । श्रूयतां सोमदेवस्य नव्याः काव्योक्तियुक्तयः ॥२४६॥ -द्वितीय आ० । यदि आपका चित्त कानोंकी अँजुलीसे सूक्तामृतका पान करना चाहता है, तो सोमदेवकी नई नई काव्योक्तियाँ सुनिए । लोकवित्वे कवित्वे वा यदि चातुर्यचञ्चवः। सोमदेवकवेः सूक्तिं समभ्यस्यन्तु साधवः ॥ ५१३॥ -तृतीय आ० । यदि सज्जनोंकी यह इच्छा हो कि वे लोकव्यवहार और कवित्वमें चातुर्य प्राप्त करें तो उन्हें सोमदेव कविकी सूक्तियोंका अभ्यास करना चाहिए। मया वागर्थसंभारे भुक्ते सारस्वते रसे। कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः ॥ -चतुर्थ आ०, पृ० १६५। मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) का स्वाद ले चुका हूँ, अतएव अब जितने दूसरे कवि होंगे, वे निश्चयसे उच्छिष्टभोजी या जूठा खानेवाले होंगे-वे कोई नई बात न कह सकेंगे। अरालकालव्यालेन ये लोढा साम्प्रतं तु ते।. शब्दाः श्रीसोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥ -पंचम आ०, पृ० २६६। समयरूपी विकट सपंने जिन शब्दोंको निगल लिया था, अतएव जो मृत हो गये थे, यदि उन्हें श्रीसोमदेवने उठा दिया–जिला दिया, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए । ( इसमें 'सोमदेव' शब्द श्लिष्ट है। सोम चन्द्रवाची है और चन्द्रकी अमृत-किरणोंसे विषमूछित जीव सचेत हो जाते हैं ।) उद्धृत्य शास्त्रजलधेर्नितले निमग्नः पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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