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ग्रन्थ में लिपिवद्ध करता है । और हमारी समझमें नीतिवाक्यामृत ऐसी बातों से खाली नहीं है । ग्रन्थकर्ताकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है
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ग्रन्थकर्ताका परिचय |
गुरुपरम्परा ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कत्ती श्री सोमदेवसूरि हैं । वे देवसंघके आचार्य थे । दिगम्बरसम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध चार संघों में से यह एक है | मंगराज कविके कथनानुसार यह संघ सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलंकदेवके बाद स्थापित हुआ था । अकलंकदेवका समय विक्रमकी ९वीं शताब्दिका प्रथम पाद है। *
सोमदेव के गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था ।
यथाः
श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशः पूर्वकः,
शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाह्वयः । तस्याश्चर्यतपः स्थितेस्त्रिनवतेर्जेतुर्महावादिनां,
शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष काव्यक्रमः ॥ —यशस्तिलकचम्पू ।
. नीतिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्ति से भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेव के शिष्य थे। साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्र देव भहारक के अनुज - थे। इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, नेमिदेव और महेंन्द्रदेव के सम्बन्धमें हमें और कोई भी बात मालूम नहीं है। न तो इनकी कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी ग्रन्थादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है । इनके पूर्वके आचार्यों के विषय में भी कुछ ज्ञात नहीं है । सोमदेवसूरिकी शिष्यपरम्परा भी अज्ञात है । यशस्तिलक के टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने एक जगह लिखा है कि वादिराज और वादीभसिंह, दोनों ही सोमदेव के शिष्य थे ; परन्तु इसके
* देखो जैनहितैषी भाग ११, अंक ७–८ x " उक्तं च वादिराजेन महाकविना--. .. स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्यः -- 'वादभिसिंहोऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच ।
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यशस्तिलकटीका आ० २, पृ०२६५ ।
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