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________________ लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस ग्रन्थका है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है। यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ ( विक्रम १०१६ ) में समाप्त हुई है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शकसंवत् ९४७ ( वि० १०८२ ) में पूर्ण किया है, अर्थात् दोनोंके बीचमें ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशामें उनका गुरु शिष्यका नाता होना दुर्घट है। इसके सिवाय वादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे । अब रहे वादीभसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पषेण था और पुष्पषेण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसलिए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जापड़ता है । ऐसी अवस्थामें वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं मानाजा सकता । ग्रन्थकर्ता के गुरु बड़े भारी तार्किक थे। उन्होंने ९३ वादियोंको पराजित करके विजयकीर्ति प्राप्त की थी+। __ इसी तरह महेन्द्रदेव भट्टारक भी दिग्विजयी विद्वान् थे। उनका ' वादीन्द्रकालानल ' उपपद ही इस बातकी घोषणा करता है। तार्किक सोमदेव । श्रीसोमदेवसूरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान थे । वे इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहते हैं: अल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता सान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोनदेवे मयि । यः स्पर्धेत तथापि दर्पदृढताप्रादिप्रगाढाग्रह स्तस्याखर्वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥ साराश यह कि मै छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालोंके साथ सुजनता और बड़ोंके साथ महान् आदरका वर्ताव करता हूँ। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है, उसके लिए, गर्वरूपी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज्र-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं। दोन्धबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, वादिद्विपोद्दलनदुर्धरवाग्विवादे । + यशस्तिलकके ऊपर उद्धृत हुए श्लोकमें उन महावादियोंकी संख्या-जिनको श्रीनेमिदेवने पराजित किया था-तिरानवे बतलाई है; परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गधप्रशस्तिमें पचपन है। मालूम नहीं, इसका क्या कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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