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३–पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडङ्गे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां दैवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत ।
-अर्थ पृ०१५-१६ । पुरोहितमुदितकुलशीलं षडंगवेदे देवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत । -नीति० पृ० १५९ । ४-परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः।-अर्थ पृ० १८ ।
परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः ।- नी० पृ. १७३ ।। ५-श्रूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वभिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः । तस्मान्मन्त्री द्वेशमनायुक्तो नोपगच्छेत् ।।
-अर्थ० पृ० २६ । अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिर्मन्त्रभेदः कृतः।
-नीति० पृ० ११८ । ६-द्वादशवर्षा स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशवर्षः पुमान् ।
-अर्थ० १५४ । द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहारौ भवतः ॥
-नीति० ३७३। इस तरहके और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं। ___ यहाँपर पाठकोंको यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि चाणक्यने भी तो अपने पूर्ववर्ती विशालाक्ष, भारद्वाज, बृहस्पति आदिके ग्रन्थोंका संग्रह करके अपना ग्रन्थ लिखा है* । ऐसी दशामें यदि सोमदेवकी रचना अर्थशास्त्रसे मिलती जुलती हो, तो क्या आश्चर्य है । क्योंकि उन्होंने भी उन्हीं ग्रन्थोंका मन्थन करके अपना नीतिवाक्यामृत लिखा है। यह दूसरी बात है कि नीतिवाक्यामृतकी रचनाके समय ग्रन्थकर्ताके सामने अर्थशास्त्र भी उपस्थित था।
परन्तु पाठक इससे नीतिवाक्यामृतके महत्त्वको कम न समझ लें। ऐसे विषयोंके ग्रन्थोंका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है । क्योंकि उसमें उन सब तत्त्वोंका समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो प्रन्थकर्ताके पूर्व लेखकों द्वारा उस शास्त्रके सम्बन्धमें निश्चित हो चुकते हैं। उनके सिवाय जो नये अनुभव और नये तत्त्व उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषरूपसे अपने
* देखो पृष्ठ ३ की टिप्पणी 'पृथिव्या लामे ' आदि ।
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