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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
उसने चित्र के मुर्गे पर आक्रमण कर दिया । चित्रकार बोला
'महाराज ! यह जीवन्त चित्र है। मुर्गा मुर्गे से लड़ रहा है।' ... 'इतना जीवन्त चित्र । इतनी जल्दी कैसे बनाया तुमने ?' राजा ने पूछा।
चित्रकार ने कहा-'महाराज ! मैंने तीन वर्ष का समय मुर्गा बनने में लगाया। अगर मैं मुर्गा नहीं बनता तो जीवन्त मुर्गा नहीं बना पाता।'
जो स्वयं देवता नहीं होता, वह देवता की पूजा नहीं कर सकता। कोई मनुष्य देवता होकर ही देवता की पूजा कर सकता है। परमात्मा की उपासना किए बिना आत्मा परमात्मा नहीं हो सकती। परमात्मा की उपासना में लम्बा समय लगता है, परमात्मा होने में लम्बा समय नहीं लगता। जो परमात्मा को नहीं देखता, वह कभी परमात्मा नहीं बन सकता।
आत्मा के विकास की एक सीमा है। चेतना के सूर्य की अनन्त रश्मियों में से कुछेक रश्मियां उसमें प्रकट होती हैं। शेष सारी परदे के पीछे रहती हैं। दूसरी सीमा यह है कि शक्ति के अनन्त स्रोतों में से कुछेक स्रोत उसमें प्रवाहित होते हैं। तीसरी सीमा यह है कि उसका आनन्द विकृत रहता है । वह आनन्द को खोजती है-वस्तुओं में, शब्दों में और वातावरण में भीतर में आनन्द का अक्षय कोष होता है। उसकी
ओर भी ध्यान नहीं जाता । क्या खाना कोई आनन्द है । आपके शरीर पर कोई फोड़ा हो रहा है । उस पर मरहमपट्टी की जा रही है । क्या फोड़े पर मरहमपट्टी करना कोई आनन्द है। फोड़े पर मरहमपट्टी करने में थोड़े आनन्द का अनुभव होता है । कुछ आराम मिलता है। ये पेट के फोड़े कुलबुलाने लगते हैं, यह जठराग्नि कष्ट देने लगती है, तब आदमी थोड़ा-सा भीतर डाल देता है । वे शांत हो जाते है। आदमी सोचता है, बहुत आनन्द मिला। यह आनन्द है या फोड़े का इलाज? शरीर को खुजलाने में आनन्द का अनुभव होता है। भला शरीर को खुजलाना भी कोई आनन्द है? हमारी सीमा बन गई। जिसमें आनन्द नहीं है उसमें आनन्द खोजते हैं। जिसमें आनन्द नहीं है उसमें आनन्द पाने का प्रयत्न करते हैं।
आत्मा की तीन सीमाएं हैं- . ज्ञान का आवरण ।
• शक्ति का स्खलन।
• आनन्द की विकृति। जैसे-जैसे हम परमात्मा की ओर बढ़ते हैं, उस दिशा में हमारा प्रायण होता है, वैसे-वैसे ये सीमाएं टूटती चली जाती हैं। आवरण समाप्त होता चला जाता है।
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