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________________ इस कृति में विषय सामग्री किस रूप में प्रस्तुत हुई है यह लेखक के ही शब्दों में प्रकट है विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक साथ होना समन्वय है । वस्तु जगत् में पूर्ण सामंजस्य और सह-अस्तित्व है। विरोध की कल्पना हमारी बुद्धि ने की है । उत्पाद और विनाश, जन्म और मृत्यु, शाश्वत और अशाश्वत-ये सब साथ-साथ चलते हैं। • ज्ञान दुर्लभ है। श्रद्धा उससे भी दुर्लभ है। आचरण उससे भी दुर्लभ है। ज्ञान के परिपक्व होने पर श्रद्धा सुलभ हो जाती है और श्रद्धा के सुलभ होने पर आचरण सुलभ होता है। धर्म और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म की आराधना न गरीब कर सकता है और न अमीर कर सकता है। जिसके मन में शान्ति की भावना जागृत हो जाती है वह धर्म की आराधना कर सकता है, फिर चाहे वह गरीब हो या अमीर । धार्मिक व्यक्ति गरीबी और अमीरी दोनों से दूर होकर त्यागी होता है। सुविधाओं की संतुष्टि अपेक्षाकृत कम लोग कर पाते हैं। विलासिताओं की संतुष्टि कुछ ही लोग कर पाते हैं। इस क्रम के साथ भगवान् महावीर के दृष्टिकोण-'लाभ से लोभ बढ़ता है'-का अध्ययन करने पर यह फलित होता है कि आवश्यकताओं की वृद्धि के क्रम में कुछ आवश्यकताओं की संतुष्टि की जा सकती है, किन्तु उसके साथ उभरने वाले मानसिक असंतोष और अशांति की चिकित्सा नहीं की जा सकती। अर्थशास्त्र द्वारा प्रस्तुत मानव के भौतिक कल्याण की वेदी पर मानव की मानसिक शांति की आहुति नहीं दी जा सकती। इसलिए भौतिक कल्याण और आध्यात्मिक कल्याण के मध्य सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है। धर्म के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता का चिन्तन करने वाले दार्शनिक व्यक्ति की आन्तरिक प्रभावों से मुक्ति को स्वतन्त्रता मानते हैं । राजनीति के सन्दर्भ में इसे दार्शनिक, व्यक्ति के बाहरी प्रभावों (व्यवस्थाकृत दोषपूर्ण नियंत्रणों) से मुक्ति को स्वतंत्रता मानते हैं। धर्म जागतिक नियमों की व्याख्या है, इसलिए उसकी सीमा में स्वतन्त्रता का सम्बन्ध केवल मनुष्य से ही नहीं किन्तु जागतिक व्यवस्था से है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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