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प्रकाशकीय
हमारा जगत् है, जीवन है, अस्तित्व है, चेतना है, शरीर विभिन्न क्षमताओं से पूर्ण है-इसमें इन्द्रियां हैं, बुद्धि है।
लेकिन, इन सबके होते हुए भी क्या जीवन का सत्य ज्ञात है? वह अज्ञात है, अपरिचित है।
सत्य की खोज-जीवन के, अस्तित्व के रहस्यों की खोज है।
जीवन के अनन्त प्रवाह में आदिम युग से अन्तरिक्ष युग तक मनुष्य विकास की जिस स्थिति पर पहुंचा है, क्या यह पूर्ण है ? नहीं, वह अपर्याप्त है, अधूरी है। मानव चेतना को विकास की अनेक सीढ़ियां तय करनी हैं । नव-जागरण का अनन्त समुद्र उसके अस्तित्व में ठाठें ले रहा है, पर उसका प्रस्फुटन आसान नहीं। जागरण की एक लंबी श्रृंखला भीतर प्रतीक्षारत है। इसके बाद ही सत्य की उपलब्धि है, अस्तित्व की पहचान है, जगत् के रहस्यों का प्रकटन है, दुःखों का निवारण है।
इस प्रकार प्रज्ञा के धनी आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने स्वअनुभव, चिंतन-मनन व दार्शनिक दृष्टिकोण से विषय की प्रस्तुति की है। ‘सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में'- भगवान महावीर के महान् अनेकांत सिद्धान्त का अनेक निष्पत्तियों के साथ निरूपण करती है । सत्य के समीप ले जाती है । अतः यह लघुकाय होते हुए भी अपने आपमें एक पूर्ण कृति है।
सम्पूर्ण कृति तेरह लघु परिच्छेदों में विभक्त है। भगवान् महावीर के जीवन और सिद्धान्त से लेकर व्यक्ति और समाज, धर्म से आजीविका : इच्छा, परिमाण, मनुष्य की स्वतन्त्रता का मूल्य जैसे विषयों को अध्यात्मवाद के साथ-साथ अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट किया गया है। तत्पश्चात् कर्मवाद, आत्मा और परमात्मा, प्रत्ययवाद और वस्तुवाद, परिणामि-नित्य, तत्त्ववाद जैसे विषयों का अन्य भारतीय दर्शनों के साथ जैन दर्शन की तुलनात्मक व्याख्या के रूप में स्पष्टीकरण हुआ है। कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि विभिन्न दार्शनिक विवेचनों के साथ-साथ इसने अपना मौलिक स्वरूप ग्रहण किया है। यह अनेकान्तवाद के अपने वैशिष्ट्य के कारण सम्भव जान पड़ा है।
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