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________________ आन्तरिक जगत् में मनुष्य सीमातीत स्वतंत्र हो सकता है किन्तु शरीर, कर्म और समाज के प्रतिबन्ध क्षेत्र में कोई भी मनुष्य सीमातीत स्वंतत्र नहीं हो सकता। यह सच है कि मनुष्य ने संसार को बदला है और यह भी सच है कि वह संसार को अपनी इच्छानुसार एक चुटकी में नहीं बदल पाया है, धरती पर निर्बाध सुख की सृष्टि नहीं कर पाया है। • महावीर ने कर्म के उदीरण और संक्रमण के सिद्धांत का प्रतिपादन भाग्यवाद का भाग्य पुरुषार्थ के अधीन कर दिया। • यदि हम नियति को जागतिक नियम (Universal Law) के रूप में स्वीकार करें तो पुरुषार्थ भी एक जागतिक नियम है। • प्रगति का पहला चरण है संकल्प और दूसरा चरण है प्रयत्न। • ज्ञान होना और संवेदन न होना-यह द्रष्टा का जीवन है। ज्ञान और संवेदन-यह कर्मवाद की पृष्ठभूमि है। जैन दर्शन ने कर्मवाद की जो मीमांसा की है, उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी नहीं हुआ है । यदि वह हो तो मनोविज्ञान और योग के नये उन्मेष हमारे सामने आ सकते हैं। सत्य सत्य ही है । वह मेरे लिए एक प्रकार का और दूसरे के लिए दूसरे प्रकार का नहीं होता। फिर भी यह हो रहा है कि मैं जिसे सत्य मानता हूं दूसरा उसे असत्य मानता है। दूसरा जिसे सत्य मानता है मैं उसे असत्य मानता हूं। सत्य का यह विवादास्पद रूप असत्य की ओर ले जाता है। इस प्रश्न को सुलझाने के लिए अनेकान्त की स्थापना करते हुए महावीर ने कहा-सत्य का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । प्रतिपादन सत्यांश का ही हो सकता है। कोई भी मनुष्य अपने जीवन में सत्य के हजारों पर्यायों से अधिक पर्यायों को अभिव्यक्ति नहीं दे पाता। • जैन दर्शन ने प्रत्ययवाद और वस्तुवाद-इन दोनों सत्यांशों की सापेक्ष व्याख्या की है। प्रत्ययवाद और वस्तुवाद एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर असत्यांश हो जाते हैं और परस्पर सापेक्ष होकर सत्यांश बन जाते हैं। विश्व का प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य-इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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