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________________ आत्मा और परमात्मा पा जाएं। समाधान का सही उपाय है अपने आपसे पूछना। जो मनुष्य अपने आप में समाधान खोजता है, उसे वह मिल जाता है। जो दूसरे से समाधान लेना चाहता है, उसका मार्ग बहुत जटिल है। एक युवक बोधिधर्म के पास गया । वे बहुत बड़े साधक थे। युवक ने पूछा'भंते ! मैं कौन हूं?' बोधिधर्म ने एक चांटा मारा और भर्त्सना के स्वर में कहा- 'चले जाओ, मूर्ख !' युवक विस्मय में डूब गया। इतना बड़ा साधक, इतना बड़ा ज्ञानी और मैंने छोटा-सा प्रश्न पछा और उसका उत्तर मिला चांटा। वह दूसरे साधक के पास जाकर बोला-'भंते ! मैंने बोधिधर्म से पूछा कि मैं कौन हूं? उन्होंने उत्तर नहीं दिया, मुझे चांटा मारा।' साधक ने कहा- 'बोधिधर्म ने तुम्हें चांटा मारा और यदि वही प्रश्न मुझसे पूछते तो मैं डंडा मारता।' वह कुछ समझ नहीं पाया, परेशान होकर चला गया। दूसरे दिन युवक फिर बोधिधर्म के पास गया। उसने कहा-'भंते ! मैंने आपसे प्रश्न पूछा था। आपने उसका कोई उत्तर नहीं दिया और चांटा मारा । क्या उत्तर देने का यह भी कोई तरीका है ? भन्ते ! आपने यह क्या किया?' बोधिधर्म ने कहा- 'इस प्रश्न को मत छेड़ो। यदि छेड़ोगे तो कल चांटा पड़ा था और आज कुछ और पड़ सकता है ।' युवक घबरा गया। वह भर्राए स्वर में बोला-'भंते ! तो क्या करूं?' बोधिधर्म बोले-'तुम मुर्ख हो ।' 'मैं मूर्ख कैसे?' युवक ने पूछा। बोधिधर्म ने कहा- 'जो बात अपने से पूछनी चाहिए वह बात तुम दूसरे से पूछ रहे हो । इसलिए तुम मूर्ख हो । जाओ, यह प्रश्न अपने आप से पूछो कि मैं कौन हूं?' बात समाप्त हो गई। युवक का समाधान हो गया। __ हमारी दुनिया बड़ी विचित्र है । जो बात अपने से पूछनी चाहिए वह दूसरों से पूछते हैं और जो दूसरों से पूछनी चाहिए वह अपने से पूछते हैं। दूसरों से पूछना चाहिए कि 'तम कौन हो?' वह हम अपने आप से पूछते हैं। अपने आप से पूछना चाहिए कि 'मैं कौन हूं?' उसे हम दूसरों से पूछते हैं। 'मैं कौन हूं?' इसका उत्तर मैं दूसरों से चाहता हूं, इसलिए उसका उत्तर नहीं मिलता और तब तक नहीं मिल सकता जब तक उसके उत्तर की खोज बाहरी जगत् में चलेगी । “मैं कौन हूं?' इसका उत्तर पाने के लिए हमने एक चरण आगे बढ़ाया और हम चेतना को बाहर से भीतर की ओर ले गए। वहां हमें अपने अस्तित्व का अनुभव हो गया। हमारी इन्द्रियां, वाणी और मन-ये चेतना को बाहर की ओर ले जा रहे थे। हमें बाह्य-दर्शन हो रहा था। प्रज्ञा ने चेतना को भीतर की ओर मोड़ा तो हमें आत्म-दर्शन होने लगा। हमारी बहिरआत्मा की यात्रा समाप्त हो गई और अन्तर आत्मा की याग पारा तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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