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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में और आदान-दोनों प्रारम्भ कर दिए। अब हमारा व्यवहार-जगत् के साथ पूर्ण सम्पर्क स्थापित हो गया। हम पांच इन्द्रिय वाले हो गए। हमारी चेतना की खिड़कियां खुल गईं, पांचों रश्मियां प्रस्फुटित हो गईं।
चेतना के सूर्य की अनन्त रश्मियां हैं। उनमें से पांच रश्मियां हमें उपलब्ध हो गईं। हमारे केन्द्र में प्रकाश है, उस पर एक आवरण पड़ा है जो प्रकाश को बाहर की ओर जाने से रोक रहा है। जैसे-जैसे उस लोहावरण को हटाकर हम आगे बढ़ते है, वैसे-वैसे हमारी चेतना की रश्मियां प्रकाश देने लग जाती हैं। एक बार विकास का क्रम प्रारम्भ होता है, वह रुकता नहीं। वह आगे से आगे बढ़ता चला जाता है । हमारे विकास का क्रम आगे बढ़ा, हमने एक दरवाजा खोल लिया। पहले खिड़कियां खुली थी और अब एक दरवाजा खुल गया। हम मनवाले प्राणी हो गए। मन बहुत बड़ा दरवाजा है । इन्द्रिय छोटी खिड़कियां हैं। मैं देखता हूं। मेरे सामने एक आदमी बैठा है। आंख ने देखा । उसका काम पूरा हो गया। यह पहले क्या था? आंख नहीं जानती। बाद में क्या होगा-यह भी नहीं जानती। मन का काम पहले-पीछे को जानना भी है। वह भूत और भविष्य को भी जानता है। इन्द्रियां केवल वर्तमान को जानती हैं। मन भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों को जानता है। इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त जानकारी का संकलन करना मन का काम है। उसके बिना पृथक्-पृथक जाने हुए ज्ञान का संकलन नहीं हो सकता। १, १, १-प्रत्येक अंक के अर्द्ध-विराम लगाते चले जाइये, प्रत्येक अंक अलग रहेगा। अर्द्ध-विराम के न होने पर ही वे ग्यारह या एक सौ ग्यारह बन सकते हैं । यह जोड़ मन का काम है । वह अतीत की घटना से निष्कर्ष निकालता है, वर्तमान को बदलता है और भविष्य को अपने अनुकूल ढालने का प्रयत्न करता है। वह अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना करता है। यदि स्मृति और कल्पना नहीं होती तो हमारी दुनिया बहुत छोटी होती । हमारी दुनिया का विस्तार स्मृति और कल्पना के आधार पर हुआ है।
मन और बुद्धि का विकास होने पर मनुष्य ने सोचा- 'मैं कौन हूं? मेरे सामने है वह कौन है ?' अस्तित्व की खोज शुरू हो गई। उस खोज ने हमें आत्मा और परमात्मा की चर्चा तक पहुंचा दिया। जब मन और बुद्धि हमारे साथ नहीं थे तब आत्मा और परमात्मा की कोई चर्चा नहीं थी। वह चर्चाहीन जगत् था। चर्चा के जगत् में हमने प्रश्न पूछे अपने से कम और दूसरों से अधिक । उनके उत्तर मिले, अपने से कम और दूसरों से अधिक। हमारी चेतना इतनी विकसित नहीं हुई कि हम अध्यात्म की गहराई में जाकर अपने आपसे पूछे, अपने आप उसका समाधान
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