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कर्मवाद
कर्म-शरीर की विद्यमानता में 'संवर'-कर्म-पुद्गलों के संबंध को रोकने वाला और उसके (कर्म-शरीर के ) अभाव में आत्मा का स्वरूप होता है । कषाय-मिश्रित चैतन्य की अनुभूति का क्षण आश्रव है। वह कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है। यहां जातीयसूत्र कार्य करता है। सजातीय सजातीय को खींचता है। कषाय-चेतना की परिणतियां पुद्गल-मिश्रित हैं। पुद्गल पुद्गल को टानता है । यह तथ्य हमारी समझ में आ जाए तो हमारी आत्म-साधना की भूमिका बहुत सशक्त हो जाती है । हम अधिक से अधिक शुद्ध चैतन्य के क्षणों में रहने का अभ्यास करें जहां कोरा ज्ञान हो, संवेदन न हो । यह साधना की सर्वोच्च भूमिका है। इसलिए जैन आचार्यों ने ध्यान के लिए 'शुद्ध उपयोग' शब्द का प्रयोग किया है । 'शुद्ध उपयोग' अर्थात् केवल चैतन्य की अनुभूति । साधना के अभाव में कर्म का प्रगाढ़ बन्ध होता है और साधना के द्वारा उनकी ग्रन्थि का भेदन होता है । इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि साधना के रहस्य को समझे बिना कर्म के रहस्य को नहीं समझा जा सकता और कर्म के रहस्य को समझे बिना साधना के रहस्य को नहीं समझा जा सकता। हम कर्म-पुद्गलों की जिन धाराओं को ग्रहण करते हैं, उन्हें अपनी क्रियात्मक शक्ति के द्वारा ही ग्रहण करते हैं। उस समय हमारी चेतना की परिणति भी उसके अनुकूल होती है। आन्तरिक और बाह्य परिणतियों में सामंजस्य हुए बिना दोनों में सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। जैन दर्शन ने कर्मवाद की जो मीमांसा की है, उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी नहीं हुआ है। यदि वह हो तो मनोविज्ञान और योग के नए उन्मेष हमारे सामने आ सकते हैं तथा जैन साधना-पद्धति का नया रूप भी प्रस्तुत हो सकता है । हम जैसी भावना करते हैं, वैसी ही हमारी परिणति होती है। जैसी परिणति होती है, वैसे ही पगलों को हम ग्रहण करते हैं। उन पगलों का अपने आप में परिपाक होता है। परिपाक के बाद उनकी जो परिणति होती है, वही हमारी आन्तरिक परिणति हो जाती है। यह एक श्रृंखला है । एक व्यक्ति ने ज्ञान के प्रति अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया, ज्ञान की निन्दा की; ज्ञानी की निन्दा की, उस समय उसकी परिणति ज्ञान-विमुख हो गई। उस परिणति-काल में वह कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। वे कर्म-पुद्गल आत्मा की सारी शक्तियों को प्रभावित करते हैं। किन्तु ज्ञान-विरोधी परिणति में गृहीत पुद्गल मुख्यतया ज्ञान को आवृत करेंगे। उनका परिपाक ज्ञानावरण के रूप में होगा। इस प्रकार हम सारे कर्मों की मीमांसा करते चलें । जिसकी चेतना की परिणति यदि ठगने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जाने वाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके चरित्र को विकृत बनाते हैं। उसकी परिणति यदि दूसरे को कष्ट देने की
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