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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
कषाय
चेतना का पहला प्रहार तब होता है, जब भेद ज्ञान का विवेक जागृत होता है । आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है - यह विवेक जब अपने वलय का निर्माण करता है तब कर्म - शरीर से लेकर कषाय तक के सारे वलय टूटने लग जाते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने बहुत ही सत्य कहा है
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भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धाः बद्धा ये किल केचन ।।
- इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं, जिनमें भेद - विज्ञान का अभाव । आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका भेद - विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई ।
ऐसा होते ही कर्म का मूल हिल उठता है। जिसने अचेतन और चेतन का भेद समझ लिया उसने कर्म और कषाय को आत्मा से भिन्न समझ लिया । समझ कर्म के मूल स्रोत पर प्रहार करती है । जिस कषाय से कर्म आ रहे हैं, उसके मूल पर कुठाराघात करती है ।
कर्म-बन्धन को तोड़ने का मूल - हेतु भेद का विज्ञान है, तो कर्म-बंध का मूल - हेतु भेद का अविज्ञान है । आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा को उलटकर कहा जा सकता है—
भेदाविज्ञानतो बद्धाः बद्धा ये किल केचन 1 तस्यैवाभावतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं जिनमें भेद - विज्ञान का अभाव है । आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका भेद-विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई ।
मूल आत्मा और उसके परिपार्श्व में होने वाले वलयों का भेद - ज्ञान जैसे-जैसे स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे कर्म-बन्धन शिथिल होता चला जाता है । जिन्हें भेद-ज्ञान नहीं होता, मूल चेतना और चेतना वलयों की एकता की अनुभूति होती है, उसका बंधन तीव्र होता चला जाता है। कर्म पुद्गल है और वह अचेतन है । अचेतन चेतन के साथ एकरस नहीं हो सकता । हमारी कषाय- आत्मा ही कर्म-शरीर के माध्यम से उसे एकरस करती है। मुक्त आत्मा के साथ-साथ पुद्गल एकरस नहीं होता, क्योंकि उसमें केवल शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है। शुद्ध चैतन्य की अनुभूति का क्षण
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