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कर्मवाद
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कर्म की तीन अवस्थाएं होती है-स्पृष्ट, बद्ध और बद्ध-स्पृष्ट ! कषाय का वलय टूट जाता है तब कोरी प्रवृत्ति से कर्म आत्मा से स्पष्ट होते हैं। कर्म दीर्घकालीन या प्रगाढ़ बंध कषाय के होने पर ही होता है । हमारी बहुत सारी अनुभूतियां कषाय-चेतना की अनुभूतियां हैं। आवेश, अहंकार, प्रवंचना, लालसा-ये सब कषाय की ऊर्मियों हैं । भय, शोक, घृणा, वासना—ये सब कषाय की उपजीवी ऊर्मियां हैं। इन ऊर्मियों की अनुभूति के क्षण क्षुब्ध और उत्तेजनापूर्ण होते हैं। जिस क्षण हम केवल चेतना की अनुभूति करते हैं, वह शांत-कषाय का क्षण होता है। जिन क्षणों में हम संवेदन करते हैं, उनमें प्रत्यक्षत: या परोक्षत: चेतना कषाय-मिश्रित होती है।
सन्त रबिया के घर एक फकीर आया। उसने मेज के पास पड़ी पुस्तक को देखा। उसके पन्ने उलटने शुरू किए। एक पन्ने पर लिखा था-'शेतान से नफरत करो' रबिया ने उसे काट दिया। फकीर बोला- 'यह क्या? इस पवित्र पुस्तक का वाक्य किसने काटा ?' संत रबिया ने कहा-'यह मैने काटा है।' फकीर ने पूछा'क्यों?' रबिया ने कहा-'अच्छा नहीं लगा।'
'यह कैसे हो सकता है कि पवित्र पुस्तक की बात अच्छी न लगे? क्या यह सही नहीं है ?' फकीर ने पूछा । संत रबिया ने कहा-'एक दिन मुझे भी सही लगता था, किन्तु आज लगता है कि सही नहीं है।'
वह कैसे? फकीर ने पछा।।
संत रबिया ने कहा- 'जब तक मेरा प्रेम जागृत नहीं था, मेरी प्रेम की आंख खुली नहीं थी, मुझे भी लगता था कि शैतान से नफरत करो, प्यार नहीं-यह वाक्य बहुत रही है। किन्तु अब मैं क्या करूं? मेरी प्रेम की आंख खुल गई है। अब घृणा करने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है। मैं घृणा कर ही नहीं सकता। प्रेम की आंख यह भेद करना नहीं जानती कि इसके साथ प्रेम करो और इसके साथ घृणा।' __ हम जब कषाय-चेतना में होते हैं तब किसी को प्रिय मानते हैं और किसी को अप्रिय । किसी को अनुकूल मानते हैं और किसी को प्रतिकूल । हमारी कषाय-चेतना शान्त होती है, तब ये सब विकल्प समाप्त हो जाते हैं। फिर कोरा ज्ञान ही हमारे सामने रहता है। उसमें न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय । न कोई इष्ट होता है और न कोई अनिष्ट । न कोई अनुकूल होता है और न कोई प्रतिकूल । इस स्थिति में कर्म का बन्ध नहीं होता।
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