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'भंते! योग किससे होता है ? '
'वीर्य (प्राण) से । '
'भंते ! वीर्य किससे होता है ? '
'शरीर से । '
'भंते! शरीर किससे होता है ? '
सत्य की खोज : अनेकाश के आलोक में
'कर्म - शरीर से ।'
'भंते! कर्म-शरीर किससे होता है ?"
'जीव से ।'
आप उल्टे चलिए । जीव से शरीर, शरीर से क्रियात्मक शक्ति, क्रियात्मक शक्ति से योग, योग से प्रमाद और प्रमाद से कर्म-बन्ध यह एक वर्तुल है ।
भाषा
कर्म की कर्ता आत्मा है या कर्म ? इस प्रश्न पर दो अभिमत हैं । सूत्रकार की में कर्म की कर्ता आत्मा है । आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में कर्म का कर्त्ता कर्म है । ये दोनों सापेक्ष दृष्टिकोण हैं। इनमें तात्पर्य- भेद नहीं है। मूल आत्मा (चिन्मय अस्तित्व) और आत्मपर्याय (मूल आत्मा के निमित्त से निष्पन्न अवस्थाएं ) —- ये दो वस्तुएं हैं। इन्हें हम अभेद और भेद — दोनों दृष्टियों से देखते हैं । जब हम अभेद की दृष्टि से देखते हैं तो कहा जाता है— आत्मा कर्म की कर्त्ता है । और जब हम भेद की दृष्टि से देखते हैं तब कहते हैं— कर्म कर्म का कर्ता है। कर्म का कर्ता कषाय- आत्मा है । वह मूल आत्मा का एक पर्याय है । यदि मूल आत्मा कर्म की कर्त्ता हो तो वह कभी भी कर्म का अकर्त्ता नहीं हो सकती । उसका स्वभाव चैतन्य है, इसलिए वह चैतन्य की ही कर्ता हो सकती है। कर्म पौगलिक है, अचेतन है । वह उसकी कर्त्ता नहीं हो सकती। मूल आत्मा के आयतन में कषाय- आत्मा (राग और द्वेष) का वलय है। उससे कर्म - पुद्गलों का आकर्षण होता है। वे कषाय को पुष्ट करते हैं । इस प्रकार कषाय से कर्म और कर्म से कषाय चलता रहता है । मिथ्या दृष्टिकोण, आकांक्षा और आत्म-विस्मृति — ये तीनों आत्म-पर्याय भी कर्म के कर्ता हैं । किन्तु वास्तव में ये सब कर्म के उपजीवी हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति भी कर्म की कर्ता है। किंतु उसमें कर्म - पुद्गलों को बांधकर रखने की क्षमता नहीं है । कषाय के क्षीण हो जाने पर केवल प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म- पुद्गल का प्रवाह आता है, वह पहले क्षण में कर्म-शरीर से जुड़ता है, दूसरे क्षण में मुक्त होकर तीसरे क्षण में निर्जीव हो जाता है । ठीक इसी तरह जैसे सूखी रेत भींत पर डाली गई, भींत का स्पर्श किया और नीचे गिर गई ।
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