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________________ कर्मवाद है। मैं इस कपड़े को जानता हूं, देखता हूं। मैं इस कपड़े को कपड़ा मानता हूं। इससे अधिक कुछ नहीं मानता। यह ज्ञान का जीवन है, यह आत्म-दर्शन है। प्रश्न हो सकता है—'यह आत्म-दर्शन कैसे? यह तो वस्त्र-दर्शन है। वस्त्र-दर्शन को हम आम-दर्शन कैसे मान सकते हैं?' इसका उत्तर बहुत साफ है । मैं वस्त्र को जानता हूं। मैं केवल जानता हूं, उसके साथ कोई संवेदनात्मक संबन्ध स्थापित नहीं करता। इसका अर्थ है मैं ज्ञान को जानता हूं और ज्ञान को जानने का अर्थ है मैं अपने आपको जानता हूं । ज्ञान और ज्ञानी सर्वथा अभिन्न नहीं है और सर्वथा भिन्न भी नहीं है । बहुत सारे लोग आत्म-दर्शन करना चाहते हैं । आत्म-दर्शन का उपाय बहुत जटिल माना जाता है । मैं आपको बहुत सरल उपाय बता रहा हूं। आप इस वस्त्र को देखें। यह आपका आत्म-दर्शन है। आप वस्त्र को देख रहे हैं, तब केवल वस्त्र को नहीं देख रहे हैं। जिससे वस्त्र को देख रहे हैं, उसे भी देख रहे हैं, अपने ज्ञान को भी देख रहे हैं। जहां केवल ज्ञान का प्रयोग होता है, वहां अपने अस्तित्व का अनुभव होता है। अपने अस्तित्व का अर्थ है-केवल ज्ञान का अनुभव। ज्ञान में किसी दूसरी भावना का मिश्रण हुआ कि वह संवेदन बन गया। ज्ञान का धरातल छूट गया। केवल ज्ञान का अनुभव करना अपने अस्तित्व का अनुभव करना है। अपना अस्तित्व उससे पृथक् नहीं है । मैं ज्ञान का अनुभव कर रहा हूं, इसका अर्थ है कि जहां से ज्ञान की रश्मियां आ रही हैं उस आत्म-सत्ता का अनुभव कर रहा हूं। क्योंकि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। केवल ज्ञान का प्रयोग करने का अर्थ है-अपने आपको जानना और अपने आपको जानने का अर्थ है-केवल ज्ञान का प्रयोग करना। इस अर्थ में केवल ज्ञान का प्रयोग और आत्म-दर्शन एक ही बात है। ज्ञान की निर्मलधारा में जब राग और द्वेष का कीचड़ मिलता है, अहं और मोह की कलुषता मिलती है, तब वह केवल ज्ञान या शुद्ध ज्ञान की धारा संवेदन की धारा बन जाती है। इस धारा में न शुद्ध चैतन्य का अनुभव होता है और न आत्म-दर्शन होता है। ज्ञान और संवेदन-यह कर्मवाद की पृष्ठभूमि है। अविभक्त बंगाल में चौबीस परगना जिला था। उस जिले में एक गांव है कोल्हू । वहां एक व्यक्ति रहता था। उसका नाम था भूपेश सेन । वह बंगाली गृहस्थ था। बहुत बड़ा भक्त था । इतना बड़ा भक्त कि जब वह भक्ति में बैठता तब तन्मय हो जाता। बाहरी दुनिया से उसका सम्बन्ध टूट जाता । एक दिन वह भक्ति में बैठा और तन्मय हो गया। बाहर का भान समाप्त हो गया। अन्तर् में पूरा जागृत किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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