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धर्म से आजीविका : इच्छा परिमाण
हो जाता है। आवश्यकता को बढ़ाने के विपक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं१. आवश्यकताओं की वृद्धि से मनुष्य दुःख-क्लेश का अनुभव करता है। २. आवश्यकताओं की वृद्धि और फिर उनकी संतुष्टि के लिए निरन्तर प्रयत्न
मनुष्य को भौतिकवादी बनाता है। आवश्यकताओं की वृद्धि से समाज में वर्ग-संघर्ष (class struggle) हो
जाता है। ४. आवश्यकताओं की वृद्धि से मनुष्य स्वार्थी हो जाता है और वह अधिक
धन कमाने के लिए अप्रामाणिक साधनों का प्रयोग करता है। अनेकान्त की दृष्टि से मीमांसा करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्यांश दोनों के मध्य में है। आवश्यकताओं की अत्यन्त कमी में सामाजिक उन्नति नहीं होती-यह अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण मिथ्या नहीं है तो आवश्यकताओं की अत्यन्त वृद्धि होने पर दुःख या क्लेश बढ़ता है, यह दृष्टिकोण भी मिथ्या नहीं है । इस दूसरे दृष्टिकोण को धर्म का समर्थन इसलिए प्राप्त है कि मार्शल के अनुसार अर्थशास्त्र मानवीय कल्याण का शास्त्र है और इसका मुख्य उद्देश्य मानवीय कल्याण में वृद्धि करना है । सीमित साधनों में असीमित आवश्यकताओं की संतुष्टि का पथ प्रदर्शित करना अर्थशास्त्र का कार्य है। किन्तु जिस अनुपात में आवश्यकताओं की वृद्धि की जा सकती है उसी अनुपात में उनकी संतुष्टि नहीं की जा सकती। सभी मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं को संतुष्ट नहीं कर सकते । अधिकांश लोग अपनी तीव्र आवश्यकताओं (अनिवार्यताओं) की संतुष्टि कर पाते हैं। मध्यम आवश्यकताओं (सुविधाओं) की संतुष्टि अपेक्षाकृत कम लोग कर पाते हैं। मन्द आवश्यकताओं (विलासिताओं) की संतुष्टि कुछ ही लोग कर पाते हैं। इस क्रम के साथ महावीर के दृष्टिकोण-'लोभ से लोभ बढ़ता है' का अध्ययन करने पर यह फलित होता है कि आवश्यकताओं की वृद्धि के क्रम में कुछ आवश्यकताओं की संतुष्टि की जा सकती है, किन्तु उनकी वृद्धि के साथ उभरने वाले मानसिक असंतोष और अशान्ति की चिकित्सा नहीं की जा सकती । अर्थशास्त्र द्वारा प्रस्तुत मानव के भौतिक कल्याण की वेदी पर मानव की मानसिक शान्ति की आहुति नहीं दी जा सकती। इसलिए भौतिक कल्याण और आध्यात्मिक कल्याण के मध्य सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है। यदि मनुष्य समाज को मानसिक तनाव, पागलपन, क्रूरता, शोषण, आक्रमण और
1. Alfred Marshall, Principal of Economics, P. 1.
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