________________
व्यक्ति और समाज
धारा में एकरूप, अपरिवर्तनशील और धर्म से प्रभावित होती है । धर्म और नैतिकता को शाश्वत सत्य की श्रेणी में रखा जा सकता है, समाज की आचार-संहिता को उस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वे दोनों व्यक्ति की आंतरिक अवस्थाएं हैं। समाज की आचार-संहिता समाज का बाहरी नियमन है। यह शुद्ध अर्थ में सामाजिक है। नैतिकता उद्गम में वैयक्तिक और व्यवहार में सामाजिक है । धर्म शुद्ध अर्थ में आत्मिक और व्यवहार में वैयक्तिक है।
त्रिवर्ग में अर्थ और काम के साथ जिस धर्म का उल्लेख है वह सामाजिक आचारसंहिता ही है। इसलिए महावीर ने काम, अर्थ और धर्म को लौकिक व्यवसाय कहा है ! स्मृतियों में इसी धर्म की व्यार । अधिक मात्रा में हुई है। सहस्त्राब्दियों से भारत की बहुसंख्यक जनता ने इंसी को शाश्वत सत्य के रूप में स्वीकार किया है। इसी के आधार पर उसमें अनेक अवांछनीय तत्त्व विकसित हुए, जिनका आज के समाजशास्त्री धर्म की इन कुसेवा के रूप में वर्णन करते हैं१. रूढ़िवादिता-धर्म ने रूढ़िवादिता को जन्म दिया। उसके नाम पर जनता
परम्परा और रीति-रिवाज को तोड़ने का साहस नहीं कर सकी। २. शोषण-धर्म के नाम पर स्त्रियों का अत्यधिक शोषण होता रहा है।
कर्मवाद के सिद्धांत ने गरीबों के शोषण के विरुद्ध क्रांति करने से रोका
३. आलस्य और भाग्यवाद-धर्म ने भाग्यवाद को प्रचारित किया। फलतः
जनता आलसी और अकर्मण्य हो गई। ४. हिंसा और युद्ध-मानव इतिहास के पृष्ठ धर्म के नाम पर किए गए
नर-संहार और जिहादों से भरे पड़े हैं। ५. घृणा-समाज में जातीय भेदभाव, घृणा और छुआछूत के लिए धर्म
उत्तरदायी है। समाजशास्त्रीय साहित्य में धर्म और नैतिकता का अंतर इस आधार पर प्रतिपादित किया गया है कि कुछ बातें नैतिकता की दृष्टि से गलत किंतु धर्म की दृष्टि से सही होती हैं । कभी-कभी धर्म समाजहित के विरोधी आचरण का विधान करता है । धर्म ने छुआछूत का विधान किया। नैतिकता की दृष्टि से यह गलत है । एक पत्नी अपने क्रूर और दुष्ट पति को नहीं छोड़ सकती-धर्म की दृष्टि से यह सही है किंतु नैतिकता की दृष्टि से गलत है। सचाई यह है कि नैतिकता मनुष्य को आगे ले जाती है और धर्म मनुष्य के विकास को अवरुद्ध कर देता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org