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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
का प्रयोजन शेष नहीं रहता, उसकी वाणी मौन हो जाती है, विकल्प शून्य हो जाते
इन दो वर्षों की साधना से उनके श्रामण्य की पृष्ठभूमि और अधिक सुदृढ़ हो गई। गुरुजनों के अनुरोध की अवधि पूर्ण हुई। उन्होंने अनुभव किया-घर में रहते हुए घर से दूर रहना सम्भव हो सकता है, पर यह सामुदायिक मार्ग नहीं है। यह कुछ लोगों का मार्ग है । सामुदायिक मार्ग यह हो सकता है-घर की वासना को छोड़ना और साथ-साथ घर को भी छोड़ देना । सबके कल्याण की बात सोचने वाला सामुदायिक मार्ग पर चलता है । महावीर ने घर छोड़ने के लिए परिवार की अनुमति प्राप्त कर ली और वे वहां से अभिनिष्क्रमण कर क्षत्रियकुण्डग्राम के बाहर उद्यान में गए। जनता के समक्ष उन्होंने स्वयं श्रमण की दीक्षा स्वीकार की, आजीवन समता के पथ पर चल पड़े। साधना के बारह वर्ष
भगवान् महावीर की साधना का पहला चरण इस संकल्प के साथ उठा-आज से मैं विदेह रहूंगा, देह की सुरक्षा नहीं करूंगा। सर्दी-गर्मी के परीषहों को झेलूंगा। जो भी कष्ट आए, उसे सहन करूंगा। रोग की चिकित्सा नहीं कराऊंगा। भूख और प्यास की बाधा से अभिभूत नहीं होऊंगा। नींद पर विजय प्राप्त करूंगा।
भगवान् महावीर ने अनुभव किया-अभय के सधे बिना समता नहीं सध सकती और विदेह के सधे बिना अभय नहीं सध सकता । मानवीय दुर्बलताओं का मूल स्त्रोत भय है । मानव की महान् शक्ति के विकास का मूल स्त्रोत अभय है । भय का आदि बिन्दु है-देह की आसक्ति । उसकी आसक्ति को छोड़ना, विदेह होना, अभय सिद्धि की अनिवार्य शर्त है।।
भगवान् महावीर जैसे-जैसे विदेह की साधना में आगे बढ़े, वैसे-वैसे उनकी अहिंसा, मैत्री और शान्ति की शिखा अधिक प्रज्ज्वलित होती गई। हिंसा, वैर और अशांति—ये सब देह में होते हैं, विदेह में नहीं होते। सर्प और समता
महावीर कनखल आश्रम के पार्श्ववर्ती देवालय के मण्डप में ध्यान कर रहे थे। चण्डकौशिक सर्प ने दृष्टि से विष का विकिरण किया। भगवान् पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह भगवान् के पैरों में लिपट बार-बार उन्हें डसने लगा। उनकी आंखों से निरन्तर अमृत की धारा बहती रही। उनका मैत्रीभाव विष को निर्विष करता
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