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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
किन्तु गति के प्रतिकूल हमारी स्थिति है। इसीलिए हम कहीं टिके हुए हैं। इस कार्य में अधर्मास्तिकाय वैसे ही उदासीन भाव से हमारा सहयोग कर रहा है, जैसे गति में धर्मास्तिकाय।'
गौतम ने पूछा-'आकाश में क्या होता है ?'
भगवान् ने कहा-'धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय—इन सबका अस्तित्व आकाश के अस्तित्व पर निर्भर है । वह उन सबको आधार दे रहा है । जिस आकाश खण्ड में धर्मास्तिकाय है, उसी में अधर्मास्तिकाय है, उसी में जीवास्तिकाय और उसी में पुद्गलास्तिकाय है । आकाश की यह अवकाश देने की क्षमता नहीं होती तो ये एक साथ नहीं होते। उसके अभाव में इन सबका भाव नहीं होता।'
गौतम ने पूछा-'भंते ! जीव क्या करता है !' ___ भगवान् ने कहा- 'वह ज्ञान करता है, अनुभव करता है । उसके पास इन्द्रियां हैं। वह देखता है, सुनता है, सूंघता है, चलता है और छूता है। सामने हरा रंग है । आंख ने देखा, उसका काम हो गया। पत्तियों की खनखनाहट हो रही है। कान ने सुना, उसका काम समाप्त । हवा के साथ आने वाली सुगन्ध का नाक ने अनुभव किया, उसका काम समाप्त । जीभ ने फल का रस चखा और उसका काम पूरा हो गया। हाथ ने तने को छुआ और उसका काम पूरा हो गया। किन्तु कुल मिलाकर वह क्या है ? यह न आंख जानती है और न कान । इसके बिखरे हुए अनुभवों को समेटकर संकलन करने वाला जो है, वह है मन । उसके लिए हरा रंग, पत्तियां, पुष्प, फल और छाल-ये अलग-अलग नहीं हैं किन्तु एक ही पेड़ के विभिन्न रूप हैं। इन्द्रियों के जगत् में वे अलग-अलग होते हैं और मन के जगत् में वे सब अभिन्न होकर पेड़ बन जाते हैं । मन सोचता है, मनन करता है, कल्पना करता है और स्मृति करता है। जीव के पास बुद्धि है । वह मन के द्वारा प्राप्त सामग्री का विवेक करती है, निर्णय देती है और उसमें कुछ अद्भत क्षमताएं हैं। वह इन्द्रिय और मन से सामग्री प्राप्त किए बिना ही कुछ विशिष्ट बातें जान लेती है। ये (इन्द्रिय, मन और बुद्धि) सब जीव की चेतना के भौतिक संस्करण हैं। इसलिए ये पुद्गलों के माध्यम से एक को जानते हैं । ये ज्ञेय का साक्षात्कार नहीं कर सकते । शुद्ध चेतना ज्ञेय का साक्षात्कार करती है। वह किसी माध्यम से नहीं जानती इसीलिए हम उसे प्रत्यक्ष ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान का संपूर्ण क्षेत्र जीव के अधिकार में है।'
गौतम ने पूछा-'भंते ! पुद्गल का क्या कार्य है ?'
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