SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्ववाद ९७ मौलिक और वास्तविक है। __वस्तु-मीमांसा और मूल्य-मीमांसा का वर्गीकरण एक साथ किया होता तो वह नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य दर्शन जैसा मिलाजुला वर्गीकरण होता। उसकी वैज्ञानिकता समाप्त हो जाती। पंचास्तिकाय के कार्य के विषय में संक्षिप्त चर्चा हो चुकी है। फिर भी उस विषय में महावीर और गौतम का एक संवाद मैं प्रस्तुत करना चाहूंगा। गौतम ने पूछा- भंते ! धर्मास्तिकाय से क्या होता है ? 'भगवान् ने कहा'गौतम ! आदमी चल रहा है, हवा चल रही हैं, श्वास चल रहा है, वाणी चल रही है, आंखें झपक रही हैं, यह सब धर्मास्तिकाय के सहारे से हो रहा है। यदि वह न हो तो विशेष और उन्मेष नहीं हो सकता। यदि वह न हो तो आदमी बोल नहीं सकता। यदि वह न हो तो आदमी सोच नहीं सकता । यदि वह नहीं होता तो सब कुछ पुतली की तरह स्थिर और स्पन्दनहीन होता।' उपनिषद् के ऋषियों ने कहा कि आकाश नहीं होता तो आनन्द नहीं होता। आनन्द कहां होता है? आकाश है, तभी तो आनन्द है। ठीक इसी भाषा में भगवान महावीर ने कहा-'धर्मास्तिकाय नहीं होता तो स्पन्दन भी नहीं होता। तुम पूछ रहे हो और मैं उत्तर दे रहा हूं, यह इसलिए हो रहा है कि धर्मास्तिकाय है। यदि वह नहीं होता तो न तुम पूछ सकते और न मैं उत्तर दे सकता। हम मिलते भी नहीं। जो जहां है, वह वहीं होता। हमारा मिलन, वाणी का मिलन, शरीर का मिलन, वस्तु का मिलन जो हो रहा है, एक वस्तु एक स्थान से दूसरे स्थान में आ-जा रही है, यह सब उसी गतितत्त्व के माध्यम से हो रहा है।' वह अपना सहारा इतने उदासीन भाव से दे रहा है कि किसी को कोई शिकायत नहीं है। उसमें चेतना नहीं है, इसलिए न उपकार का अहंकार है और न कोई पक्षपात । वह स्वाभाविक ढंग से अपना कार्य कर रहा है।' गौतम ने पूछा- 'भंते ! अधर्मास्तिकाय से क्या होता है?' भगवान् ने कहा- 'तुम अभी ध्यान कर आए हो। उसमें तुम्हारा मन कहां था?' 'भंते ! कहीं नहीं। मैंने मन को निरुद्ध कर दिया था।' भगवान् बोले-'यह निरोध, एकाग्रता और स्थिरता अधर्मास्तिकाय के सहारे होता है। यदि वह नहीं होता तो न मन एकाग्र होता, न मौन होता और न तुम आंख मूंद बैठ सकते । तुम चलते ही रहते । इस अनन्त आकाश में अविराम चलते रहते। जिस बिन्दु से चले उस पर फिर कभी नहीं पहुंच पाते । अनन्त आकाश में खो जाते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy