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________________ जैन धर्म की प्रासंगिकता आधुनिक बौद्धिक एवं तार्किक युग में अनाग्रह-दृष्टि द्वारा ही सत्यान्वेषण किया जा सकता है। आग्रहजन्य आत्यन्तिक दृष्टि मिथ्यावाद की धुंध में लिपट कर मनुष्य को अपने धर्म से विचलित कर देती है। उसकी वह दृष्टि दूसरों को तो भली प्रकार देख नहीं पाती, स्वयं को भी नहीं देख पाती। एक सन्तुलित एवं सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर हम दूसरों को, अपने को देखकर ज्ञान-लोक में उतर सकते हैं। जैन धर्म की प्रासंगिकता इस दृष्टि से स्वयंसिद्ध है कि उसका अनेकान्तवाद का सिद्धांत सभी प्रकार के दुराग्रहों की धुंध को विच्छिन्न करता है और एक सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण को पल्लवित करता है, समतामय विचारधारा को विकसित करता है । आज समाज में, देश में, विश्व में विचारों का संघर्ष है। सभी अपने-अपने दृष्टिकोण को मूल्यवान् समझकर दूसरों के दृष्टिकोण को अवहेलित तथा खण्डित करते हैं। दूसरों की बात को, मत को सहानुभूति और सहिष्णुता के साथ न सुनना पारस्परिक संघर्ष को हवा देना है। हमारे देश में साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका देश को आक्रांत किये है । सिक्खों के जत्थों में कई बार खून-खराबा हो चुका है। पिछले कुछ महीनों में हिन्दू-मुसलमानों के दंगों में मनुष्य-जाति का अनमोल रक्त बहाया गया, हिंसा का क्रूरतम रूप कभी संभल, कभी अलीगढ़, कभी जमशेदपूर अ.दि में देखा गया। बेचारे हरिजनों को धधकती आग में जीवित झोंका गया। ये हृदय-विदारक घटनाएं केवल इसलिए हुई कि लोगों में वैचारिक सहिष्णुता नहीं, अनाग्रह दृष्टि नहीं, सर्वधर्म-समभाव का उदारवादी दृष्टिकोण नहीं, जो जैनधर्म के अनेकान्तवाद में अभिनिहित है । अनेकान्तवादी संघर्षवादी नहीं हो सकता, अनेकान्तवादी दुराग्रह द्वारा अपने मत को सर्वोत्तम नहीं कह सकता। अनेकान्तवादी समन्वयवादी होता है, वह परस्पर-विरोधी मतों, विचारधाराओं में सहिष्णुता की मिठास घोल कर उनकी कटुता को नष्ट कर सर्वग्राही बनाता है। जैन धर्म का यह सिद्धांत आज के संघर्षाकुल युग के लिए बहुत ही आवश्यक और उपादेय है। इसकी शरण में आकर साम्प्रदायिक और राजनीतिक सभी प्रकार के संघर्ष-द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। विश्व की सबसे बड़ी शान्ति स्थापित करने वाली संस्था यू. एन. ओ. जब अपने मिशन में असफल हुई तो इस कारण ही कि सदस्य देश संकीर्ण विचारधारा से बाहर नहीं निकल सके, वे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु नहीं बन सके, उनके विचारतन्तु समन्वयात्मक दृष्टि में से उद्भूत नहीं थे, वे अनेकान्तवादी नहीं थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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