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अध्यात्म के परिपार्श्व में
अपने ही देश में राजनीतिक उथल-पुथल पर दृष्टि डालकर देखिये तो यहां भी अनेकान्त-रहित दृष्टि ही प्रमुख कारण है। जैन धर्म तो एकत्व और अनेकत्व दोनों को सत्य मानकर अंगीकार करता है। जैनधर्म में भगवान् महावीर ने सामाजिक और राजनीतिक, आर्थिक और साम्प्रदायिक सभी प्रकार की समस्याओं का अहिंसात्मक समाधान अनेकान्तवाद द्वारा प्रस्तुत किया है, जिसकी उपयोगिता आज अधिक तीव्रता से अनुभव की जा रही है।
___ जैनधर्म की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए सामाजिक एकता को सामने रखना होगा । आज हमारा समाज न जाने कितनी जातियों-उपजातियों में विभक्त है । और उस पर तुर्रा यह कि ये जातियां-उपजातियां ऊंच-नीच की हीनता की ग्रंथि में इतनी बुरी तरह फंसी हैं कि जो नीच घोषित कर दी गयी वह बस प्रलयकाल तक सृष्टि के अन्त तक-नीच ही बनी रहेगी। हरिजनों को ही लीजिये; संविधान में समानता के अधिकार की घोषणा की गयी, फिर भी शासन को, सरकार को हरिजनों की सुविधा के लिए उनके जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने के लिए विशेषाधिकारों की घोषणा करनी पड़ी; परन्तु इन विशेषाधिकारों को भोग कर अपना जीवन-स्तर ऊपर उठाने वाले क्या समाज में समादृत हैं ? नहीं। बाबू जगजीवन राम हमेशा से मंत्री पद पर रहे हैं, परन्तु आम लोगों ने इन्हें 'हरिजन' ही समझा। जैनधर्म में इस प्रकार के जातीय भेदभाव का कलंक नहीं। डा० राधाकृष्णन ने ठीक कहा है-"जैन दर्शन सर्वसाधारण को पुरोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान करता है।" क्या कोई हरिजन वेद-उपनिषद् का महान् पण्डित होकर इस प्रकार धार्मिक अधिकार ग्रहण कर सकता है हिन्दू समाज में ? जैनधर्म तो लोकधर्म है, समाज धर्म है । उसमें व्यक्ति के विकास की पूर्ण स्वतन्त्रता है। बदलते हुए सन्दर्भो में जैनधर्म का मूल्य उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। समाज में एकता और समानता स्थापित करने के लिए जैनधर्म की ओर देखना होगा। हम यों नहीं कहेंगे कि जैनधर्म, जो भगवान् ऋषभदेव से भगवान् महावीर तक श्रमण-धर्म की शिक्षाओं को तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुकूल प्रचारित करता रहा वह बदल गया है, हम तो यह मानते हैं कि वह बदला नहीं, बल्कि उसका क्षेत्र और अधिक विस्तृत हो गया है। वह "जीव-मूल्यों" के साथ "जीवन-मूल्यों" की बातें भी कहने लगा है। उसकी आचारगत अहिंसा विचारगत अहिंसा की भूमि में पहुंच गई है। व्यक्तिगत उपलब्धि सार्वजनिक बनती जा रही है। महावीर ने घर-बार छोड़कर जो व्यक्तिगत कैवल्योपलब्धि प्राप्त की वह सार्वजनिक ही तो है। क्या उनके समवसरण के द्वार सभी के लिए खुले नहीं थे ? कसाई, चोर-जार, ज्ञानी-मूर्ख, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी बिना किसी भेदभाव के वहां सम्मिलित होते थे। जैनधर्म की यह समन्वयवादी या समानतावादी विचारधारा हमारे समाज में एकता स्थापित
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