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________________ जैन धर्भ की प्रासंगिकता ८७ कर सकती है, उससे हम अपने राष्ट्र की एकता को अधिक मजबूत बना सकते हैं। महावीर ने वर्गहीन समाज की स्थापना की थी, आज हम भी समाजवाद के द्वारा उस आदर्श को छूने का प्रयास कर रहे हैं। आज जातीय बन्धनों को तोड़कर जो एक नया समाज बनता नजर आता है, उसने जैनधर्म को आत्मसात् किया है, ऐसा मालूम होता है आचार्य तुलसी और एलाचार्य मुनि विद्यानन्दजी आदि के उपदेशों को उसने आत्मसात् किया है। कालानुसार पुरानी मान्यताओं के रूप बदलते हैं, नवीन और व्यापक होते हैं । अहिंसा अवश्य परम धर्म है। किसी को मारना, सताना, पीटना हिंसा है; लेकिन आज हिंसा युग-संदर्भो में कुछ नवीन रूप धारण कर सामने आती-जाती है। यह मानना होगा कि जैनधर्म में अहिंसा पर जितना अधिक जोर दिया गया, शायद वैसा जोर विश्व के किसी धर्म में नहीं दिया गया, जैन समाज में बालक को बचपन में ही अहिंसा का पाठ मां की गोद से पढ़ाया जाता है । अहिंसा और सेवा-भाव का प्रसार जैन समाज ने इतना अधिक किया है कि समाज के किसी वर्ग ने इतना नहीं किया। अनेक औषधालय, समाज-सेवी संस्थाएं, कॉलेज जैन समाज द्वारा सारे देश में चलाये जा रहे हैं। राष्ट्रीय उद्योग को विकसित और संवर्धित करने में जैन उद्योगपतियों का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। जैनधर्म में तुच्छ-से-तुच्छ और हिंसक-से-हिंसक प्राणी को मारने का पूर्ण निषेध है; लेकिन आज की हिंसा पशु-पक्षी को मारने, किसी जीवधारी को सताने तक सीमित नहीं, उसने भी अपने क्षेत्र का विस्तार काला धन, उत्कोच, चोरी-डकैती, जमाखोरी, खानेपीने की चीजों में मिलावट, तस्करी या स्मगलिंग आदि के रूपों में किया है। ये सब सामाजिक दोष हैं और समाज विरोधी तत्त्व इन्हीं के द्वारा रातों-रात लखपति बन जाते हैं । जैनधर्म में अस्तेय का सिद्धांत जहां चोरी-डकैती का निषेध करता है, ऐसे पापमय कुकर्म से बचने का आदेश देता है वहीं अपरिग्रह का सिद्धांत जमाखोरी, खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट, तस्करी आदि से बाज रखता है । महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धांत सामने रखकर वर्तमान युग की समस्याओं का अहिंसात्मक समाधान प्रस्तुत किया। बुरे कर्मों से समाज बुराई में फंसेगा ही, दुर्गन्ध से वातावरण दुर्गन्धित होगा ही। अच्छे कर्मों के फलों की सुगंध ही दूर-दूर तक फैलती है। "नारायणोपनिषद्' में कहा गया यथा वृक्षस्य संपुष्पितस्य दूराद्गंधो वाति । एवं पुण्यस्य कर्मणो दूराद् गंधो वाति ।। अर्थात् फूले हुए वृक्ष की सुगंध दूर-दूर तक फैल जाती है, वैसे ही पवित्र कर्मों की सुगंध दूर-दूर तक पहुंचती है। जैनधर्म का अपरिग्रह का सिद्धांत भी एक पुष्पित वृक्ष है, उसके गुणों की सुगंध फैलनी ही चाहिए । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only For
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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