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________________ ८८ अध्यात्म के परिपार्श्व में जहां कहीं परिग्रह है, लट-खसोट है, उसकी दुर्गंध को अपरिग्रह की सुगंध नष्ट कर सकती है। समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक गांव या नगर में डाकुओं ने घर में घुस कर हत्याएं कीं और हजारों का माल लेकर फरार हो गये, या अमुक राह चलती स्त्री के गले की स्वर्ण-चेन खींच कर कोई भाग गया, या अमुक युवती की दहेज कम लाने पर गला घोंटकर या मिट्टी का तेल छिड़ककर हत्या कर दी गयी। इन सबके पीछे परिग्रह की बुराई है। वह परिग्रह जिसे जैनधर्म ने वजित घोषित किया है। मनुष्य धनार्जन करे, परन्तु उचित साधनों से और उचित मात्रा में उससे दूसरों की सेवा करे । अपरिग्रह को हमें महावीर के इस आदर्श को सामने रखकर ग्रहण करना चाहिए कि जिससे दूसरों की सेवा की जा सके, देश का नवनिर्माण किया जा सके, अपने से अधिक दूसरों को सुख पहुंचाया जा सके । महावीर नहीं चाहते थे कि कोई गरीब हो, गरीबी के अभिशाप में फंसा हो। जैनधर्म की दृष्टि समाजवादी है, लेकिन दूसरे प्रकार की। अपरिग्रह को हम समाजवाद के निकट रख सकते हैं, लेकिन अपरिग्रह को समाजवाद नहीं कह सकते । समाजवादी आदर्श यह है कि कोई मुझसे बड़ा न हो, सब मेरे बराबर हों। अपरिग्रहवादी आदर्श यह है कि कोई मुझसे छोटा न हो, बड़ा चाहे हो । वह जो कुछ अपने पास रखता है उसे दूसरों में भी बांटना चाहता है। केवल गरीबी मिटाओ या वस्तुओं के मूल्य कम करो का नारा लगाने से समस्या का निदान नहीं हो सकता। गरीबो यदि मिटानी है, वस्तुओं के मूल्यों को बढ़ने से रोकना है, जमाखोरी या तस्करी को नष्ट करना है तो जैनधर्म में निर्दिष्ट अपरिग्रहवाद को स्वीकार करना होगा। आज इसी सिद्धांत की समाज को अधिक आवश्यकता है । इसी के द्वारा आर्थिक विषमताजन्य अनेक समस्याओं को सरलता से हल किया जा सकता है। जब तक परिग्रहजन्य छीना-झपटी रहेगी, वस्तुओं का संचय किया जाता रहेगा, वस्तुओं के मूल्य बढ़ते रहेंगे। गरीब और गरीब, अमीर और अमीर होते रहेंगे और समाज या देश सुखशांति से वंचित रहेगा। लोग दरिद्रता के चक्र में फंसे असहाय दम तोड़ते रहेंगे। देश दुर्व्यसनों में जकड़ा रहेगा। कानून पास करने से हृदय नहीं बदलता, हृदय बदलता है ज्ञान से, अहिंसा से, अभ्यास से । यहां कथनी और कर्म में समानता होनी आवश्यक है। लोग हृदय से अपरिग्रही हों, तभी वे भौतिकता से ऊपर उठकर आध्यात्मिक लोक में पहुंच सकते हैं। इस प्रकार अपरिग्रह भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच सुदृढ़ सेतु का काम करता है। वह वचनानुसार कर्म करके अध्यात्म-भूमि को छू सकता है। हमारे नेताओंराजनेताओं की बातों में कोई तालमेल नहीं होता, जो वे कहते हैं वह करके नहीं दिखाते-शायद वे कानून अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए पास करते हैं। समाज की आर्थिक विषमता का समाधान जैनधर्म के अपरिग्रहवाद में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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