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________________ ३ जैनधर्म : एक सम्प्रदायातीत धर्म हुए हो । जाति, कुल और ऐश्वर्य का मद विषमता उत्पन्न करता है । तुम मद को छोड़कर मृदुता के पथ पर आये, विषमता को छोड़कर तुमने समता का वरण किया। इस प्रकार महावीर का धर्म तो समता-धर्म है, यहां भेद के लिए कोई गुंजाइश नहीं, यहां तिरस्कार, घृणा, विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। सूत्रकृतांग' (१-१३-१०,११) में कहा गया है--"तुम ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र या लिच्छवि चाहे किसी भी जाति या कुल में उत्पन्न हुए पर अब तुम समता के शासन में प्रवजित हो, अहिंसक होने के कारण परदत्तभोजी हो, फिर यह जाति और कुल का अभिमान कैसा ? यह जाति और कुल तुम्हें त्राण नहीं दे सकता । विद्या और चरित्र का आचरण है। तुम्हें त्राण दे सकता है।" फिर जाति या कुल का अभिमान कैसा, फिर ऐश्वर्य और वैभव पर मद कैसा ? महावीर का धर्म यह कहां? यहां जातीय भेदभाव नहीं है; अतः जैनधर्म को किसी जाति का धर्म कैसे कहेंगे? यह तो शुद्धतः मानवता का धर्म है, सम्प्रदाय और जाति से दूर हटकर यह राजमार्ग जाता है। इस राजमार्ग पर सभी को चलने का समान रूप से अधिकार है। जैनधर्म को हम जोड़ने वाला धर्म कहेंगे, यह विभिन्न जातियों और मनुष्यों को जोड़ता है, सबको एक साथ मिलकर चलने, रहने, जोने का अधिकार देता है। यह प्राणिमात्र का धर्म है-सभी प्राणियों में एक जैसे सुख-दुःख की बात कहने वाला धर्म है । यह आन्तरिक समानता का धर्म है। अहिंसा धर्म का अनुयायी वही बनता है जिसके अन्तर्बाह्य दोनों समता पर अवलम्बित हों। भगवान् महावीर कहते हैं कि तुम अनादिकाल से संसार में जन्म ले रहे हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसके तुम माता-पिता, पुत्र, भाई आदि न हो। फिर किसे तुम मित्र मानोगे और किसे शत्रु ? किसे तुम उच्च मानोगे और किसे नीच ? किससे घृणा करोगे और किसे अपनाओगे ? अहिंसा हमें समता, समभाव की ज्योति प्रदान कर राग-द्वेष, लोभ-मोह, काम-क्रोध के सघन तम को नष्ट करती है। हमारे अन्दर आत्मानुशासन पैदा करती है। महावीर ने ही हमें आत्मानुशासन का मंत्र दिया, इससे हमें स्वयं को अनुशासित करना चाहिए। परन्तु आज वह मंत्र हम भूला बैठे हैं। यहां एक प्रश्न सहज ही उभरता है कि जैनधर्म में तो श्वेताम्बर, दिगम्बर और फिर स्थानकवासी, तेरापंथी आदि कई एक सम्प्रदाय और गच्छ है, फिर इसे असाम्प्रदायिक कैसे कहा जा सकता है ? इसका सीधा-सा उत्तर यह है कि भेद या सम्प्रदाय जैनधर्म के लिए नहीं ये । तो लोगों की, जातियों के दृष्टि-भेद, विचार-भेद के कारण हैं। जैनधर्म अखण्ड है। मनुष्य वर्गों, जातियों, सम्प्रदायों में बंट सकता है परन्तु हवा को आप वर्गों में नहीं बांट सकते, चांदनी या धूप की सीमाएं नहीं बांध सकते । जहां से जीवन मिलता हो, प्राण-शक्ति मिलती हो, प्रकाश मिलता हो, वहां भेद उत्पन्न नहीं किया जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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