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________________ ८२ अध्यात्म के परिपार्श्व में हानि, अपने पराये सबमें उनकी दृष्टि समान होती है । सूर्य जब निकलता है। तब और जब डूबता है तब ताम्रवर्णी होता है— दोनों स्थितियों में एक जैसा निर्विकार, निर्लिप्त, निर्ग्रन्थ । भगवान् महावीर ऐसे ही महा पुरुष थे । उनका अहिंसा-तत्त्व जीवन-तत्त्व है, सभी प्राणियों के लिए उसमें दया, करुणा, समता का भाव है, किसी एक के लिए नहीं । डॉ० राधाकृष्णन् उनके विषय में कहते हैं- 'भगवान् महावीर के अहिंसा-तत्त्व पर ही भारत की शासन-पद्धति आधारित है । भगवान् महावीर महान् विजयी थे । इतिहास के सच्चे महापुरुष थे । वे मानव समाज के शिक्षक थे । भगवान् महावीर के उपदेशों से हिंसा और संयम के सिद्धान्त का विकास अपनी चरम सीमा तक पहुंचा था । प्राचीन भारत के निर्माण में भगवान् का स्थान बहुत ऊंचा और महत्त्वपूर्ण है ।' मैं कहता हूं कि आधुनिक भारत, आधुनिक विश्व, आधुनिक मानव के निर्माण में भगवान् महाबीर के सिद्धान्त आज भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं, अपनी महत्ता और उपादेयता सिद्ध कर सकते हैं; जरूरत है उन्हें जीवन में उतारने की, उन्हें जीने की। जैनधर्म सम्प्रदायगत नहीं है, यह मानवगत है । 'जिन' से जैन बना है, जो अपने को जीत लेता है, अपनी इच्छाओं, कामनाओं को जीत लेता है, काम-क्रोध-लोभ-मोह द्वारा विचलित नहीं होता वही 'जिन' है, 'जैन' है । इस दृष्टि से सभी वे व्यक्ति जैन कहे जा सकते हैं जो कामजयी हैं, तृष्णाजयी हैं, इन्द्रियजयी हैं, भेदजयी हैं। यहां तो सम्प्रदाय का पंक देखने में भी नहीं आता । सम्प्रदाय की भूमि में धर्म जब पहुंच जाता है तो भेदभाव और मताग्रह के दलदल में फंसता - धंसता चला जाता है । जैनधर्म का सारभूत मंत्र है नमस्कार महामंत्र । इसमें पंच परमेष्ठी की जो वन्दना की गयी है वस्तुतः वह किसी सम्प्रदाय - विशेष की संकीर्ण सीमा में परिबद्ध नहीं है अपितु यह तो गुणों एवं व्यक्तित्व विकास की वन्दना है । यहां किसी भी जगह जाति या सम्प्रदाय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है और न ही जैनधर्म का कहीं नामोल्लेख है, फिर जैनधर्म को साम्प्रदायिक धर्म कैसे कहा जा सकता है ? व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास गुणों तथा त्याग के आधार पर होता है । समाज व्यक्ति को नहीं पूजता, व्यक्तित्व को पूजता है, गुणों की आरती उतारी जाती है, त्याग की अर्चना की जाती है, आत्मा की पूजा की जाती है, मानव की मानवता का आदर किया जाता है । भगवान् आत्मवादी थे । उनके सामने प्रथम स्थान आत्मा का था । मनुष्य का स्थान दूसरा था । भगवान् मानवतावादी थे । उनके सामने प्रथम स्थान मानवता का था । वे जातिको मूल्य नहीं देते थे । भगवान् के कैवल्य का संवाद सुनकर चन्दना भी वहां पहुंच गई थी । और भगवान् ने उसे दीक्षा दी -नारी जाति को दीक्षित करने में कोई भेदभाव नहीं बरता । भगवान् महावीर ने कहा" मैंने समता-धर्म का प्रतिपादन किया । तुम सब समता के शासन में दीक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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