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________________ जैनधर्म : एक सम्प्रदायातीत धर्म आज का युग विज्ञान और टेक्नोलॉजी का युग माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि विज्ञान-युग में धर्म की दीवारों का पलस्तर उखड़ता जा रहा है, धर्म की दीवारें अचिरात् धराशायी हो जाएंगी परन्तु ऐसी बात नहीं। यह माना कि भौतिकता की चकाचौंध अधिक है; सोने-चांदी की चमकदमक से हमारी आंखें खीरा, धुंधली हो गई हैं। वस्तुतः धर्म को विज्ञान से खतरा नहीं, विज्ञान के आधार पर धर्म के स्वरूप के दुर्गम रहस्यों को समझा देखा, परखा जा रहा है। हम वैज्ञानिक दृष्टि से वस्तुओं का परीक्षण-निरीक्षण करने के अभ्यस्त हो रहे हैं। विज्ञान हमें ज्ञान के क्षितिजों को उद्घाटित करने में सहायक बनता है---टॉर्च लेकर हमारे साथ रहता है, मार्ग दिखाता है। आज धर्म को यदि खतरा है तो भौतिकता की भयंकर बाढ़ से है । भौतिकता में जो आकर्षण, मोह, ममत्व, ललक है वह किसी वस्तु में नहीं। भोग-विलास, तृष्णाएं-कामनाएं, वैभव-सम्पदा सभी इसी के रूप हैं, इन्हें हस्तगत करने की लालसा छोटे-बड़ों सभी में पायी जाती है। परिग्रह-प्रवृत्ति भौतिकता का मूल है इसकी विनाशकारी, घातक स्थिति से सभी परिचित हैं, हिंसा इसका सबसे विकृत रूप है, इसमें असत्य और स्तेय स्वतः मिल जाते हैं और फिर मानवता की प्रतिमा को ये अपनी आंच से गलाने-पिघलाने लगते हैं । आज भौतिकता की अग्नि से जीवन-मूल्य पिघल रहे हैं, मानवता गल रही है, धर्म जल रहा है, संस्कृति झुलस रही है। इस अग्नि को बुझाने के लिए हमें सर्वधर्मसमभाव के जल की आवश्यकता है। यदि सर्वधर्मसम-भावना को हमने अंगीकार कर लिया, तो मानवता की रक्षा हो सकेगी, विश्व-शांति स्थापित की जा सकेगी और फिर सच्चे अर्थों में यह पृथ्वी मनुष्य के लिए जीने के योग्य बन सकेगी, जीवन बनाने के लिए हो सकेगी। सर्वधर्मसमानत्व का आदर्श आज की भौतिकताक्रान्त मानव-जाति के लिए अत्यन्त श्रेयस्कर है, अतः मान्य है, स्वीकार्य है। जैनधर्म सर्वधर्म-समानत्व का आदर्श प्रस्तुत करता है, उसे यदि किसी जाति या सम्प्रदाय के संकुचित घेरे में बन्द करके देखेंगे तो दृष्टि सीमित होगी, एक निश्चित दूरी तक हम देख सकेंगे। दृष्टि को धूमिल होने से बचाना चाहिए, उसे दूर तक देखने का अभ्यस्त करना चाहिए, तभी हम सम्यक् द्रष्टा बन सकेंगे। कहा जा सकता है कि महापुरुषों में सम्यकदृष्टि होती है, सम्यक्ज्ञान होता है, सम्यक् आचरण वे करते हैं; सुख-दुःख, लाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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