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अध्यात्म के परिपार्श्व में
सबको गले से लगाकर, प्रेम से सद्भाव, से एक साथ बिठाया जा सकता है।' 'समणसुत्त' (२४) में कैसे पते की बात कही गई है कि जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो और जो अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी क्यों चाहते हो ? यही है तीर्थंकर महावीर का संदेश
जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियग्गं जिणसासणं ॥
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