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________________ जैनधर्म और भावनात्मक एकता तुम कत ब्राह्मण, हम कत सूद । हम कत लोहू, तुम कत दूध ।। कुल नहीं गुण को महत्त्व देना चाहिए, जाति नहीं ज्योति को पहचानना चाहिए । हम जाति के पीछे पड़े हैं और ज्योति को भूल बैठे हैं । इसीलिए समाज में एकता नहीं है । हम जाति के गर्व में, भाषा के गर्व में, प्राप्त के गर्व में रात-दिन मस्त रहकर ज्ञान-ज्योति को बिसार बैठे हैं, उससे विमुख हो गए हैं । मनुष्य का जाति से नहीं, गुणों से सत्कार करना चाहिए । जाति को नहीं, ज्योति को पहचानो- “जाणहु जोति न पूछहु जाती" (नानकदेव)। 'अनुयोगद्वार' सूत्र में श्रमण के विषय में कहा गया है :उरगगिरि जलणसागरणहतलतरुगण समो अ जो होइ। भमरमियधरणि जलरुहरविपवणसमो अ सो समणो ।। अपनी मर्यादा का अतिक्रमण न करने से उसे सिन्धुसमान माना जाता है, सुख-दुःख में वह निर्विकार होता है, संसार के माया-मोह के व्याधि से भयभीत रहता है मृग के समान, सहिष्णुता में पृथ्वी के समान होता है, निस्पृही तथा निर्लेप होता है, ज्ञान-ज्योति से पूर्ण रहता है। हमें जैनधर्म के समता, सहिष्णुता-भाव को, अनेकान्त तथा अहिंसा-भाव को आधार बनाकर भावात्मक एकता का वातावरण निर्मित करना चाहिए । सर्वत्र एक-सी आत्मा को देखना चाहिए, एक परमात्मा की शरण में जाना चाहिए । जो एक को जानता है वह सबको जानता है—'जे एगं जाणइ ते सव्वं जाणइ' (आचारांग) । आज हम केवल अपने को सुखी देखना चाहते हैं। दूसरों के दुःख की चिंता न कर अपनी स्वार्थसिद्धि में बड़े से बड़ा अनिष्ट तक करने को तैयार रहते हैं । जैनधर्म सबका हित करने वाला है, सबको समान दृष्टि से देखता है, सबका आदर-सम्मान करता है। यदि हम ‘णमोकारमंत्र' पर गहराई से ध्यान दें तो इसमें गुणों के आधार पर जो व्यक्तित्व-पूजा है, वह बड़े व्यापक-गुणों को, सहिष्णुता को, सार्वभौमिकता को चित्रित करती है, उसमें ज्ञान-सूर्य को रश्मियां विकीणित हैं। ये साधु-वृत्ति के मनुष्य बड़े परमार्थी हैं, बादलों के समान, हमेशा दूसरों की तपन बुझाने वाले हैं। संसार में जो साधु हैं, उपाध्याय हैं, आचार्य हैं, सिद्ध हैं, अर्हन्त हैं—सभी वंदनीयपूज्य हैं । महर्षि पातंजलि ने कहा है कि जहां अहिंसा होती है, वहां वैर-भाव स्वाहा हो जाता है । अहिंसा मानवता की, प्रेम को, सद्भाव की शीतल वर्षा करके सबको समशीतल करने वाली है । अहिंसा माता के समान है; सबको ममत्व तथा वात्सल्य प्रदान करने वाली है । जैनधर्म में अहिंसा-जनित ममत्व और वात्सल्य, अनेकांतजनित सहिष्णुता और सर्वधर्मसद्भाव का जो स्वरूप निहित है वह सचमुच भावनात्मक एकता का मंच तैयार करता है जिस पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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