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जैनधर्म और भावनात्मक एकता
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सन्निहित है । जैनधर्म की यह एक मौलिक देन है । जहां हम अहिंसा के द्वारा दूसरे को आत्मवत् देखते हैं, सर्वत्र मैत्री का रंग बिखरा पाते हैं, सभी प्राणियों की रक्षा करने, उन पर दया करने की बात कहते हैं वहां अनेकांतवाद द्वारा दूसरों के मत को समझने-परखने, उस पर सहानुभूतिपूर्ण उदारता से विचार-विमर्श करने के भाव भी विराजमान पाते हैं। अनेकांत जैनधर्म की समन्वयवादी दृष्टि है। यहां तामसिक मनोवृत्ति का शमन होता है और सत्य का, विवेक का, ज्ञान का सर्वग्राही मार्ग विकसित होता है। इसीलिए दूसरी शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्म को 'सर्वोदय तीर्थ' कहा है— "सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव"। मनुष्य को जब सम्यग्ज्ञान की संप्राप्ति होती है, जब उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है, या जब उसमें सम्यग्ज्ञान-चरित्र का उदय होता है तभी मोक्ष की सिद्धि हो सकती है—'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः'।
ज्ञानी होना अहिंसक होना है। जो अहिंसक या अनेकान्तवादी होता है वह ईर्ष्या-द्वेष से, राग-विराग से, मान-अपमान से दूर रहता है। उसकी दृष्टि में कोई दुराग्रह नहीं होता। दुराग्रही को एकता नहीं, विषमता नजर आती है । कृष्ण के आदेश पर जब दुर्योधन और युधिष्ठिर भिन्न दिशाओं में जाकर गुणी व्यक्ति की खोज में निकले तो दुर्योधन को कोई गुणी ही नजर नहीं आया और युधिष्ठिर को कोई अवगुणी दिखाई नहीं दिया। युधिष्ठिर को सब किसी न किसी गुण से सम्पन्न दिखाई दिए। कारण यह था कि दुर्योधन की दृष्टि में अवगुण ही देखने की भावना थी, वह अभिमानी था, अपने से बड़ा, अच्छा किसी को नहीं समझता था । युधिष्ठिर विनम्र थे, सत्य-गुण के ग्राहक तथा प्रशंसक थे, इसलिए उन्हें सर्वत्र गुण ही दिखाई देते थे । जैनधर्म अनेकान्त के द्वारा भावनात्मक एकता का प्रसार करता है, दृष्टिभेद के बीच समन्वय स्थापित करता है। यहां 'दुर्योधनत्व' के स्थान पर युधिष्ठिरत्व' का मान किया जाता है। हनुमान को भी एक बार ऐसा हो गया था। अशोकवाटिका में उसे कोई सफेद फूल नजर नहीं आया, सर्वत्र लाल रंग के फूल ही दिखाई दिए, क्योंकि उनकी आंखों में खून उभर आया था, आंखें क्रोध से लाल हो गई थीं। यही है राग-द्वेष, मताग्रह का परिणाम । कबीर ने कितनी सच्ची बात कही है कि मैं संसार में जब आदमी की खोज में निकला तो कोई मुझे बुरा दिखाई नहीं दिया। जब मैंने अपने आपको देखा तो मुझ से कोई बुरा नजर नहीं आया । जैनधर्म में आत्मा को, अपने को पहचानने की बात कही गई है, अपना दीपक आप बनने का उपदेश दिया गया
___ जैनधर्म अहिंसा के द्वारा, अनेकान्तवाद के द्वारा सबको अपना मित्र बनाता है-यहां शत्रु को भी मित्र माना जाता है और कष्ट देने वाले पर
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