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जैनधर्म और भावनात्मक एकता
थामस पेन का विचार है-“यदि प्रत्येक व्यक्ति से अपने धर्ममत की परीक्षा करने को कहा जाए, तो कोई भी धर्म बुरा सिद्ध न होगा । किन्तु, यदि उनसे एक-दूसरे के धर्म-मतों की परीक्षा करने को कहा जाए तो विश्व में कोई भी धर्म दोष-रहित न मिलेगा । इसलिए जहां तक धर्म की विभिन्न संस्थाओं का प्रश्न है, या तो सारा संसारा ठीक है या सारा संसारा गलत है।" यह दृष्टि-भेद का कारण है । हम भेद-अन्तर को लेकर चलेंगे तो भेदअन्तर सर्वत्र नजर आएगा और यदि एकता-समन्वय को लेकर बढ़ेंगे तो एकता-समन्वय का संसार चारों ओर नजर आएगा । यह दुराग्रह का, ईर्ष्याद्वेष का, राग-विराग का, काम-क्रोध का तमाशा है । संघर्ष तथा अशांति के यही कारण हैं । हम मताग्रही हैं, लोभ-मोह में फंसे हैं, अतः परिग्रहवादी हैं, हिंसावादी हैं। जैनधर्म समन्यवादी धर्म है, वहां मताग्रह नहीं समता-भाव हैं महावीर ने जब 'ना हिस्वात्' की बात कही तो उसके पीछे 'सर्वभूतेषु आत्मवत्' की उदार दृष्टि फैली हुई थी। महावीर ने आचारांग सूत्र' (१-५५) में स्पष्ट कहा-''अरे मनुष्य ! जिसे तू मारना चाहता है, वह भी तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करता है, जिस पर शासन करना चाहता है या जिसे दुःख देना चाहता है वह भी तेरे जैसा ही प्राणी है । जिसे तू अपने वश में करना चाहता है, जिसे मृत्यु के मुंह में धकेलना चाहता है वह भी तेरे जैसा प्राणी है।" परन्तु आज हम अपनी आंखों पर मताग्रह के, हिंसा के, परिग्रह के, मोह-लोभ के काले चश्मे चढ़ाए हैं इसलिए वस्तु के वास्तविक धर्म को ठीक-ठीक देख नहीं पाते । अपने आप को ही सब कुछ समझ बैठे हैं । विचार-वैभिन्य हमें सहन नहीं; बस स्थिति यह है कि यदि हम दिन को रात कहें तो दूसरे को सहमति में सिर हिलाकर कहना चाहिए कि हां सरकार चांद-तारे भी चमक रहे हैं
खिलाफे राय सुलतां राय जुस्तन, बखू ने खेश बाशद दस्त शुस्तन । अगर शाह रोज रा गोयद शबस्ती, बबायद गुफ्त ईनक माह परवी ।
- शेखसादी और आज हम देख रहे हैं कि ऐसी जी हुजूरी करने वाले, 'हां' में 'हां' मिलाने वाले अपने स्वार्थार्थ दूसरों के अविवेक-सम्मत दृष्टिकोण को, उनके दुराग्रह को नतमस्तक स्वीकार करते हैं। महावीर ने दूसरों की दृष्टि से देखने-समझने की बात भी कही है जो उनके अनेकान्तवाद-स्याद्वाद दर्शन में
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