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________________ जैन दर्शन और गीता ७५ है। यही सृष्टि, प्रलय और अस्तित्व तत्त्व है। भगवान महावीर कहते हैं कि शरीर एक नौका है और इसे तब तक नहीं छोड़ा जा सकता जब तक तट के पार नहीं पहुंच जाते । अतः इस शरीर से नौका का काम लो, क्योंकि पार होना है। आत्मा नाविक है और शरीर नौका है । अतः शरीर का उचित और पूरा उपयोग करना चाहिए सरीरमाहु नावत्ति जीवो वुच्चई नाविओ । संसारो अष्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो । गीता के अनुसार प्रज्ञा को बुद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। आत्मा और अनात्मा के विवेक से उत्पन्न ज्ञान ही प्रज्ञा है । जैनदर्शन में प्रज्ञ, महाप्रज्ञ आदि के प्रयोग मिलते हैं। प्रज्ञा को 'इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान' माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार इन्द्रियों के विषयों को रोकना कठिन है, राग-द्वेष को अवश्य रोका जा सकता है। गीता कहती है कि योग का कर्म मन, बुद्धि, इन्द्रियां या शरीर से होता है। यहां ममत्व, प्रिय-अप्रिय, राग-द्वष नहीं। जहां राग-द्वेष होता है वहां इन्द्रिय, मन, बुद्धि दृष्टा न होकर बन्धन कर्ता बन जाते हैं । गीता में ब्रह्म को न सत् कहा गया है और न असत् कहा गया है। वह दूर भी है और निकट भी है, वह चल और अचल दोनों है। यह चिन्तन जैनदर्शन के अनेकांतवाद से मेल खाता है। अनेकांत-दृष्टि भी वस्तु को अनेकधर्मी मानकर चलती है। किसी एक के प्रति कोई दुराग्रह यहां नहीं रहता। महावीर ने कहा, वस्तु के अनन्त धर्मों और पर्यायों को अनन्त चक्षुओं से देखो। उन्हें किसी एक ही चक्षु से मत देखो। जो व्यक्ति वस्तु-सत्य को एक चक्षु से देखता है वह अपने स्वीकृत सिद्धांत का समर्थन और दूसरों की स्वीकृतियों का खण्डन करता है। 'समाधिशतक' (३१) में कहा गया है कि जो परमात्मा है, वह मैं हूं, जो मैं हूं वही परमात्मा है। मैं ही मेरे द्वारा उपासनीय हूं। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं, यही वस्तुस्थिति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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