SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ अध्यात्म के परिपार्श्व में उद्धे रदात्मनात्मान नात्मानमवसादयेत् । आत्मैवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। ( ६,५) अर्थात् आत्मा को, मनुष्य को अपना उद्धार आप ही करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य ( आत्मा ) स्वयं ही अपना बन्धु है, अपना सहायक व मित्र है, वह स्वयं ही अपना शत्रु है, कोई दूसरा अपना बन्धु या शत्रु नहीं है । आगे कहा गया है कि जिसने अपने आप को जीत लिया वह स्वयं अपना बन्धु है, परन्तु जो अपने आप को नहीं पहचानता वह स्वयं अपने साथ शत्रु के समान व्यवहार करता है बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। ( ६,६) भगवान महावीर कहते हैं अप्पा कत्ताविकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तं ममित्तं य दुप्पट्ठिय सुपट्टिय || उत्तराध्ययन सूत्र २०/३७ मनुष्य स्वयं अपने दुःख-सुख कर्त्ता - विकर्त्ता है । दुष्प्रस्थित और सुप्रस्थित जीव अपना-अपना मित्र और शत्रु स्वयं है । जैनदर्शन के आचार्य उमास्वाति कहते हैं— सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चरित्र मोक्ष मार्ग है, तत्वश्रद्धा सम्यक्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के बाद सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति होती है । गीता में श्रद्धा व ज्ञान पर काफी बत्र दिया गया है । जितेन्द्रिय पुरुष श्रद्धा के द्वारा ज्ञान अर्जित करता है और शांति प्राप्त करने में सफल होता है। ज्ञान और श्रद्धा से विहीन मनुष्य लोकपरलोक का भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्ति मचिरेणाधिगच्छति ॥ (४,३९ ) अज्ञ श्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ( ४, ४० ) अर्थात् जो श्रद्धावान पुरुष इन्द्रियसंयम करके उसी के पीछे पड़ा रहे, उसे भी यह ज्ञान मिल जाता है और ज्ञान प्राप्त होने से तुरन्त ही उसे परमशांति प्राप्त हो जाती है । परन्तु जिसे न स्वयं ज्ञान है और न श्रद्धा ही है उस संशयग्रस्त मनुष्य का विनाश हो जाता है । संशयग्रस्त को न यह लोक है और न परलोक है, न सुख ही मिलता है । भगवान महावीर ने शरीर को अनित्य कहा है – इमं सरीरं अणिच्च” । गीता में जन्म-मरण को अविनाभावी माना गया है ( २,२७ ) । जैनदर्शन में इसे उत्पन्न होना, नष्ट होना और अस्तित्व में रहना, त्रिपदी तत्त्व कहा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy