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________________ जैन दर्शन और गीता ज्ञानानन्दमय है और शरीर ज्ञानानन्द से विहिन है । शुद्ध है । 'समाधिशतक' (६३, ६६ ) में कहा गया है नष्ट अथवा रक्त होने पर उसे धारण करने वाला को, अपने को सघन, जीर्ण, नष्ट अथवा रक्त नहीं के सघन, जीर्ण, नष्ट अथवा रक्त होने पर मनुष्य नहीं समझता । शरीर मरण को प्राप्त करता है कोई भय नहीं । आत्मन्येवात्मधीरन्यां शरीरगतिमात्मनः । मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रान्तरग्रहम् ॥ ७३ शरीर अशुद्ध है, आत्मा कि वस्त्र के सघन, जीर्ण, मनुष्य जिस प्रकार आत्मा मानता, उसी प्रकार शरीर आत्मा को जीर्ण या नष्ट परन्तु आत्मा को मरण का -समाधिशतक, ६६ चित्त की वृत्तियों का निरोध योग कहलाता है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: ( योग दर्शन ) उस समय आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर हो जाती है । गीता में योग की स्थिरता को व्यक्त करते हुए दीपक की उपमा दी गई है । जैसे वायु के बिना, आवेग के बिना दीपक स्थिर रहता है वैसे ही योगी का चित्त बिना चंचलता के स्थिर रहता है (गीता ६- १९ ) । ' ध्यान शतक' ( ७९-८० ) में भी इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है कि घर में वायु रहित दीपक स्थिर रहता है एकत्व - वितर्क - अविचार शुक्ल ध्यान भी स्थिर रहता है । गीता में कहा गया है कि जिस समय सकल वासनाओं की इच्छा से मुक्त होकर साधक का अचल चित्त आत्मा में स्थिर हो जाता है, उस समय उसे योग-युक्त कहते हैं | योगाभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस समय स्थिर होता है, उस समय वह आत्मा अपनी आत्मा को आत्मा द्वारा साक्षात् देखता है, आत्मा में ही संतुष्ट होता है । (६.१९-२० ) । 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि जिस साधु का चित्त कामभोगों से विरक्त होकर एवं शरीर के मोह से मुक्त होकर स्थिर हो गया ही ध्याता प्रशंसा का अधिकारी है ( प्रकरण ५.३) । राग के क्षीण, द्वेष और मोह के नष्ट होने पर यदि चित्त अपने स्वरूप - साधन में लगता है तो वही सिद्धि है | मोह कर्दम के नष्ट होने पर, रागादि परिणामों के नष्ट होने पर योगीजन अपने ही परमात्मा स्वरूप का अनुभव व ध्यान करते हैं । ( ज्ञानार्णव, त्रयोविंश प्रकरण १०-११ ) | ( समाधितंत्र' (७५) में इस बात का उल्लेख है कि अपनी आत्मा ही अपने लिए जन्म को, जन्म-मरण वाले संसार को प्राप्त करती है, इसलिए अपनी आत्मा ही अपना गुरु, हितोपदेश देने वाला बन्धु है और कोई गुरु नहीं - नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मैन्नान्योऽस्ति परमार्थतः ॥ और गीता में कहा गया है— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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