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अध्यात्म के परिपार्श्व में
अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए ग्रहण करता है, उसी प्रकार देही अर्थात् शरीर का स्वामी आत्मा पुराने शरीर त्याग कर दूसरे नये शरीर धारण करती है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (२,२३) अर्थात् आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसे आग जला नहीं सकती, वैसे ही इसे पानी भिगो या गीला नहीं कर सकता, वायु भी इसे सुखा नहीं सकती।
और जैनदर्शन में आत्मा के विषय में कहा गया है कि शुद्ध आत्मा में चतुर्गतिरूप, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक तथा कुल, योनि, जीव-स्थान और मार्गणास्थान नहीं होते । 'समणसुत्तं' (१८२)। आत्मा एक अमूर्त पदार्थ है। उसका आकार अगुव्रत है या शरीर विशेष पर निर्भर है। सम्पूर्ण शरीर पर उसक अधिकार होता है, शरीर में व्याप्त होने के कारण उसका आकार शरीर के आकार के साथ संवर्धनशील होता है। बाल्यावस्था को पार करके यौवनावस्था को प्राप्त करने तक शरीर का विकास होता है उसी प्रकार आत्मा का भी विकास होता है और वृद्धावस्था में शरीर के शिथिल होने के साथ आत्मा में भी शिथिलता आ जाती है। आत्मा चूंकि शरीर के प्रत्येक भाग में अवस्थित है, अतः सुख-दुःख का प्रभाव शरीर के एक भाग पर ही नहीं पड़ता, पूरे शरीर पर पड़ता है और आत्मा भी उससे प्रभावित होती है। दुःख में शरीर निर्बल, मलिन और निष्प्रभ व कांतिहीन हो जाता है तो आत्मा भी कांतिहीन, निर्बल, मलिन होती है । उसी प्रकार शरीर के उल्लसित, सुखी होने पर आत्मा भी सुखी होती है, उसकी शक्तियां विकसित होती है। आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, लेकिन शरीर के विनाश होने पर आत्मा का विनाश नहीं होता। 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है
अयमात्मा स्वभावेन शरीरादेविलक्षणः ।
चिदानन्दमयः शुद्धो बन्धं प्रत्यक्यवानपि । प्रकरण (२,९४) अर्थात् यह आत्मा स्वभाव से, शरीर आदि से भिन्न है, क्योंकि वह चेतना, आनन्दस्वरूप, शुद्ध और बन्ध के प्रति एक होकर भी वस्तुतः एक नहीं है। अतः आत्मा शरीर से भिन्न है, दोनों का स्वभाव भिन्न है, आत्मा १. ईसाई धर्म को न मानने वाले यूनान व रोमवासियों का यह विश्वास था
कि मनुष्य की आत्मा का आकार शरीर के आकार-मात्र है, शरीर में परिवर्तन व वृद्धि होने के साथ-साथ आत्मा के आकार में भी परिवर्तन व वृद्धि होती रहती हैं। -जे० डब्लू ० ड्रेपर : दि कपिलट बिटवीन रिलीज्न एण्ड साइन्स ।
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