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जैन दर्शन और गीता
जैनदर्शन की गीता से तुलना करना हो सकता है किसी को समीचीन व प्रिय न लगे, क्योंकि गीता ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन, उसकी अवतार लीला का समर्थन करती है, जबकि जैन दर्शन में न तो ईश्वर की सत्ता स्वीकार है और न वहां भगवान को अवतरित होना मान्य है। परन्तु यह सब होते हुए भी जैनदर्शन और गीता में भी आत्मा को अक्षुण्ण माना गया है, दोनों में शरीर को नाशवान कहा गया है। गीता का प्रतिपाद्य अर्जुन के संदेह का, मोह का निवारण करना है । 'महाभारत' का अंश है गीता । कौरव और पांडवों की सेनाएं युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में आमने-सामने डटी है। कृष्ण अर्जुन के सारथी हैं । अर्जुन, यह देखने के लिए कि मेरे सामने कौन-कौन युद्ध करने आये हैं, कृष्ण से अपना रथ युद्धभूमि के बीच खड़ा करने को कहते हैं । कृष्ण ने अर्जुन का रथ युद्ध-भूमि में ले जाकर खड़ा कर दिया, अर्जुन ने चारों ओर नजर दौड़ाई, देखा, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, दुर्योधन और अनेकों बन्धुमित्र-परिजन सामने खड़े हैं। ये सब मुजसे लड़ने आये हैं और मुझे इन सब पर सर-संधान करना है, इन सब से युद्ध करना है। उसे चक्कर आ जाता है, सिर पकड़कर रथ में बैठ जाता है और जब कृष्ण उनसे पूछते हैं कि क्या हुआ तो कहता है "मैं यह युद्ध नहीं करूंगा, अपने बन्धु-परिजनों की हत्या नहीं करूंगा।" तब कृष्ण उन्हें उपदेश देते हैं जो गीता के रूप में विद्यमान है। कृष्ण अर्जुन के मोह को नष्ट करते हैं और उसे शरीर की नश्वरता तथा आत्मा की अमरता का उपदेश देते हैं । सकल प्राणियों में आत्मा मरण-रहित है, शरीर का बध होने पर भी आत्मा का वध या नाश नहीं हो सकता। कृष्ण कहते हैं
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। (२,२०)
अर्थात् यह आत्मा न तो कभी जन्मती है और न मरती ही है। ऐसा भी नहीं कि एक बार होकर फिर होने की नहीं। यह अज, नित्य, शाश्वत और पुरातन है एवं शरीर का वध भी हो जाए तो भी मारी नहीं जाती।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।
(२,२२)
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