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अध्यात्म के परिपार्श्व में
वाली शक्तियों का देश-समाज विरोधी तत्त्वों का खुलकर विरोध करें और राजनेता भी उनके स्वर में स्वर मिलाये तो कोई कारण नहीं हम उन तामसिक तथा राक्षसी शक्तियों पर विजय न पा सकें। बुराई का, अन्याय का विरोध न करने से बुराई और अन्याय उग्रता से फैलते हैं। हमने देख लिया है कि घणा करने से, अपने सामने दूसरों को नीच-हीन या अस्पृश्य समझने से देश को, समाज को, स्वयं मानव जाति को कितनी हानि हुई है । "भारत की अधोगति पर उमी दिन मुहर लग गयी जिस दिन हमने 'म्लेच्छ' शब्द का आविष्कार किया और दूसरों से सम्पर्क तोड़ लिया ।"-(स्वामी विवेकानन्द)। निरभिमानी बनकर चलने से हम निकृष्ट और अनिष्टकारी तत्वों पर, समाज विरोधी तत्त्वों-शक्तियों पर विजय पा सकते हैं। योगीराज अरविन्द ने भारत के पांच स्वप्न देखे थे-(१) भारत को पुन: एक होना होगा, क्योंकि खंडित रहकर वह अपना देव निर्दिष्ट नहीं कर पायेगा । (२) भारत की स्वतंत्रता अफ्रीका और एशिया के परतंत्र देशों के लिए स्वाधीनता का द्वार बनेगी, अर्थात् प्रत्येक स्वतंत्रता-संग्राम में भारत को जूझती हुई जनता का साथ देना होगा। (३) एक विराट मानवसंघ की स्थापना जो समस्त मानवजाति को एक सूत्र में बांध सके। (४) भारत जगत् को अपनी आध्यात्मिकता का उपहार देने में समर्थ होगा। (५) मानव चेतना के विकास का नया चरण । उनके ये सपने थे, लेकिन उन्हें संकल्प कहना उचित होगा। जब भारत भौतिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न होगा तभी उसके विकास को सर्वांगीण विकास कहा जायेगा और इस सर्वांगीण विकास की मंजिल मानव-धर्म का सम्बल लेकर ही तय की जा सकती है, साम्प्रदायिकता की संकीर्ण गलियों, मताग्रह की तंग पगडंडियों से नहीं । हिंसक हुंकारों से तो कलिंग को भी नतमस्तक होना पड़ा था, (प्रसाद)। भारत और मानवता की विजय समन्वय के सूत्र में बन्धन से होगी, अनाग्रही दृष्टि को त्यागने से होगी। मानव-धर्म से ही हम त्राण पा सकते हैं । अहिंसा, बन्धुत्व, सह-अस्तित्व की बन्द खिड़कियों को खोलना होग।। न साम्प्रदायिक कट्टरता अच्छी है, अहितकर है और न सम्प्रदायवाद अच्छा है, उन्हें तो त्यागना ही होगा। हमारी मुक्ति प्रीत में है (डा० इकबाल) और महावीर गांधीजी की अहिंसा में है-'सव्वे पाणा ण हंतव्वा ।"
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