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________________ मानव-धर्म और असाम्प्रदायिक दृष्टि सद्भाव, सहिष्णुता, मैत्री, उदारता के सहारे हम बढ़ती साम्प्रदायिकता का प्रशमन कर समाज को, राष्ट्र को विनाश के कगार पर जाने से बचा सकते हैं। आज पारस्परिक सहयोग की, पारस्परिक हित-सम्पादन की महती आवश्यकता है । हमारे अन्दर मताग्रह इतना बढ़ गया है कि वह अज्ञानता के गर्त में ढकेलता जा रहा है। दूसरों को हम अपने समान समझने को तयार नहीं, हमारे अन्दर आत्मोपम्य दृष्टि का अभाव है। गीता में कृष्ण का उपदेश है आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽजुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परयो मतः ।। (६-३२) अर्थात् जो व्यक्ति अपने भांति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख या दुख को भी सब में सम देखता है वह परम श्रेष्ठ है । इस प्रकार की आत्मोपम्य दृष्टि रखने वाले सत्पुरुष का अभाव हमें बार-बार उस समय अधिक खटकता है जब हिंसात्मक उपद्रव होते हैं, मनुष्य मनुष्य का खून बहाने को उतारू होता है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः,' ऐसे ज्ञानीजन की हमें आवश्यकता है, महती आवश्यकता है । 'अथर्ववेद' में बहुत ही सुन्दर मंत्र है जिसमें कहा गया है कि मैं तुम को एक हृदयवाला और एक मन वाला और आपस में द्वेष न रखने वाला सिरजता हूं । तुम सब एक-दूसरे से मिलने के लिए प्रेम से खिचकर चले आओ जैसे अपने बछड़े की तरफ गाय दौड़ी हुई आती है । सहृदयं सोमनस्यमत्रिद्विषं कणोमिषः कन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जाम्लमिवाधन्या । हमारे अन्दर सौमनस्या का अभाव है. सौहार्द का अभाव है। जितना अधिक द्वेष, वैरभाव, दूरी, पृथकतावादी दृष्टि रहेगी उतना ही अधिक समाज और राष्ट्र के सामने समस्याएं जटिल होती जायेंगी । मैथिलीशरण गुप्त की वाणी आज भी सार्थक और परमोपयोगी है-- . उत्पीड़न अन्याय कहीं हो, दृढ़ता सहित विरोध करो। किन्तु विरोध पर भी अपने, करुणा करो, न क्रोध करो। न तन-सेवा न मन-सेवा, न जीवन और धन-सेवा । हमें है इष्ट जन-सेवा सदा सच्ची भुवन-सेवा ॥ ० ० ० आकृति वर्ण और बहुं भेष, ये सब निज वैचित्र्य विशेष । डालो अन्तर्दृष्टि निमेष, देखो अहा ! एक ही प्राण, विश्व-बन्धुता में है त्राण । बुद्धिजीवी वर्ग यदि एकजुट होकर घृणा, द्वेष, हिंसा, उपद्रव मचाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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