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अध्यात्म के परिपावं में
व्यवहार कर रहा है । हम हिंसा नहीं, अहिंसा के धर्म का पालन करने के पैदा हुए हैं। हां, इतना जरूर है कि हमारी अहिंसा हमारी दुर्बलता या कायरता नहीं, यह हमारे पौरुष का, बल का, धैर्य का, सहिष्णुता का, साहस का प्रतीक है । हमने अहिंसा को परम धर्म माना है । यही तो मानवधर्म है । जब रामकिंकर तुलसीदास जी कहते हैं
परहित सरिस धरम नहीं भाई ।
परपीड़न सम नहीं अधमाई ॥ तो वह मानव-धर्म की ही बात कहते हैं । हजारों वर्ष पूर्व रचे गये 'महाभारत' में अहिंसा का विशदता से प्रतिपादन किया है। हमने उसे धर्म माना है जो धारण करता है। मनुष्य को, समाज को अनुशासन, संयम में रखकर व्यवस्थित करता है । वैशेशिक दर्शन में कहा गया है कि जो बाह्य तथा आभ्यान्तरिक अभ्युदय तथा श्रेष्ठता का कल्याणकारी मार्ग है वह धर्म है । मनु ने समस्त प्राणियों में समत्व का धर्म माना है, प्रतीक को धर्म का कारण नहीं माना (समः सर्वेष भूतेषु न लिंग धर्मकारणम्)। स्मृतिकार ने धर्म के दस लक्षण निर्धारित किये हैं
धृतिः क्षमादमोस्तेय शौचमिन्द्रिय निग्रहः ।
धीविद्या सत्यमक्रोधादशकं धर्म लक्षणम् ।।
धैर्य, क्षम, संयम, अस्तेय, शृद्धता, इन्द्रियनिग्रह, विवेक, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस धर्म के लक्षण हैं, शाश्वत धर्म-लक्षण भी इन्हें कह सकते हैं । जैन संस्कृति में क्षमा, मार्दव, मार्जव, सत्य, शौच और संयम को मानवधर्म कहा गया है । मनुष्य को पशुजाति से पृथक् करने वाला धर्म ही है। नहीं तो आहार, निन्द्रा, भय और मैथुन ये सब बातें मनुष्य और पशु में समान पाई जाती हैं । जिस मनुष्य में धर्म नहीं वह पशु के समान ही है
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणान् । धर्मोहि तेषामधिको विशेषो धर्मेणहीनाः पशुभिः समानाः ।।
. (हितोपदेश) श्रीमद्भागवत पुराण में भक्त कहता है मुझे मोक्ष नहीं चाहिए । मुझे साम्राज्य भी नहीं चाहिए । जो दुखी जीव है उनके दुःख का निवारण कर सकू, यही मानव-धर्म है । मनुष्य मनुष्य के सुख-दुःख में सहायक हो, उसमें दूसरों के प्रति करुणा, सहानुभूति की भावना हो और सभी के प्रति समता, भाईचारे का भाव हो । जो दूसरे का शोषण कर सुख-सुविधाओं का साम्राज्य जुटाता है वह मनुष्य कहे जाने का अधिकारी नहीं । दूसरे को अभावार्णव में धकेलकर स्वयं सुख चैन से रहना मानवीय व्यवहार नहीं कहा जा सकता। गुरुनानक शोषण के विरुद्ध थे। उन्होंने कहा है--"जो मनुष्य झूठ बोलकर दूसरों का हक मारता है तथा इसके विपरीत समझता है ऐसे उपदेशकर्ता
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