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अध्यात्म के परिपार्श्व में
समाज में, देश में स्थापित करना चाहते हैं, या उसका रूप इन विभिन्न क्षेत्रों में विकसित और सधित देखना चाहते हैं। मनुष्य का अनेक संस्थाओं से, कारोबारी केन्द्रों से, कार्यालयों से सम्बन्ध होता है, या उसका आये दिन इनसे काम पड़ता रहता है । यहां एक मनुष्य जब दूसरे मनुष्य के संपर्क में आता है, उसके साथ व्यवहार करता है तो बहुत बार उसका अनुशासनहीन और अमर्यादित रूप देखने में आता है, और कभी-कभी तो उसे पशुवत् देखा जाता है। अतः अशान्ति और संघर्ष का सूत्रपात होता है, व्यक्ति व्यक्ति से टकराता है और फिर वह अनर्थ एक ज्वालामुखी के रूप में फूटकर समाज के विनाश का कारण बनता है । आज रिश्वतखोरी, वस्तुओं में मिलावट, जमाखोरी, कृत्रिम मंहगाई, स्मगलिंग आदि रूपों में धोखाधड़ी या बेईमानी का अभिशाप समाज में धुन की तरह लगा है। इसका कारण अनुशासन या कर्तव्यपरायणता की कमी है। वस्तुतः अनुशासन, मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा-ये तीनों पर्याय हैं, एक ही भागीरथी की तीन धाराएं हैं। इन क्रियाओं का सुखद सम्मिलन तीर्थराज प्रयाग की संरचना कर सकता है । परन्तु हम देखते हैं कि मनुष्य अपने को समृद्ध बनाने के लिए कुर्सी, शक्ति, चाटुकारिता की नई त्रिवेणी बहा रहा है, फिर संघर्ष के लिए रास्ता स्वतः खुल जाता है। हम देखते हैं कि लोग नेताओं की परिक्रमा करते रहते हैं, उनकी चापलूसी में जमीन-आसमान के कुलावे मिलाने की कोशिश करते हैं । न हम स्वार्थ त्याग पाते हैं, न हमारे पूज्य नेतागण । लाओत्से ने कुछ और ही बात कही है-सबसे अच्छे राजा वे हैं, जनता जिनका केवल नाम सुनती है। उनसे निम्न वे हैं जिनकी जनता को कदम-कदम पर जरूरत पड़ती है।" कैसी विडम्बना है कि हम किसी व्याख्यानमाला का उद्घाटन, किसी पुस्तक का विमोचन ऐसे नेता या मंत्री से कराते हैं जिसका पढ़ने-लिखने से कोई सम्बन्ध नहीं। उसने किसी भारतीय विद्वान की पुस्तक को कभी हाथ में नहीं लिया। फिर भला उससे हमें क्या ज्ञानलोक मिलेगा। हां, "अर्थलोक" अवश्य हाथ लग सकता है । ऐसी स्थिति में हमें अनुशासन या मर्यादा को दूर से सलाम करना पड़ेगा। यहां यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हमें अपने लोगों का-ज्ञानी संतात्माओं का सम्मान नहीं करना चाहिए। हम भला ज्ञानी-महात्माओं, तपः-पूत ऋषियों को, ज्ञानचेता महापुरुषों को कैसे छोड़ सकते हैं ! यदि उनका अपमान करेंगे तो हमें भी अपमानित होना पड़ेगा
अपमान हते हवे ताहादेर सवार समान (टैगौर)
आज जाति-पांति, आचार-विचार, राजनैतिक मतवाद कितनी ही विरोधी भावनाओं का चतुर्दिक प्रसरण है । मनुष्य उलझन के निबिड़ निर्जन में फंसा है । सिद्धांतों और आदर्शों की धुंआधार बहस होती है, सभी अपना
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