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________________ ५२ अध्यात्म के परिपार्श्व में 'फैज' ने भी इसी प्रकार के शब्द दिल्ली में अपनी ७०वीं वर्षगांठ के समारोह में व्यक्त किये---"मैं चाहता हूं कि दुनिया में दुःख जितना कम हो सके उतना अच्छा है। हमें हमेशा इन्सान की खुशियों में इजाफा करने की कोशिश करनी चाहिए।" और जैनधर्म का भी यही संदेश है। इसी संदेश द्वारा हम विश्व एकता, मानव एकता की भावना को सुदृढ़ बना सकते हैं। महावीर का संदेश है-किसी को मानकर मत चलो, सत्य की दिशा में अनेकान्त का उपयोग करो। अनेकान्त का आशय है-किसी वस्तु को एक दृष्टि से मत देखो। अपनी पूर्व धारणा के दृष्टिकोण से मत देखो। वस्तु में जो है उसे ही देखो और जितने वस्तु धर्म हैं उतने ही दृष्टिकोणों से देखो। यहां आकर राग-द्वेष के बन्धन टूट जाते हैं, समत्वभाव की कल्लोलिनी उन्मत्त होकर प्रवाहित होने लगती है। मताग्रह से सांप्रदायिकता के झक्कड़ चलते हैं, मतांधता की आंधी उठती है जिससे दृष्टि धूमिल हो जाती है । सम्यकदृष्टि का लोप हो जाता है। अनेकांतवाद में न पूर्वधारणा है, न मताग्रह है यहां तो वस्तु का हम सापेक्ष दृष्टि से निरीक्षण-परीक्षण करते हैं । यही सर्वधर्मसभाव तथा वैचारिक सहिष्णुता की सुखद भावधारा प्रवाहित करने वाला सिद्धांत है । विरोधी सत्यों में सामंजस्य स्थापित करने वाला है, सह-अस्तित्व की संस्कृति का जनक है। अनेकान्त का प्रमुख प्रयोजन है परस्पर विरोधी दृष्टिगोचर होने वाले दो धर्मों, विचारों, मतों, सिद्धांतों का सापेक्षभाव सिद्ध करना। पाश्चात्य विचारकों-शिलर, व्हाइहैड, आइंस्टीन आदि अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद के प्रशंसक हैं । जैनधर्म परस्परोपग्रहो जीवानाम् का प्रचार है, यहां हम एकता और सौहार्द की भूमि में प्रवेश करते हैं। सभी प्राणियों के साथ प्रेम व सद्भाव की प्रेरणा इसी मंत्र में छिपी है। जातीय भेदभाव रगोनस्ल का इमतियाज यहां खुद ही समाप्त हो जाता है। सह-अस्तित्व बहुत बड़ी सचाई है। इस सचाई के आलोक में वर्तमान राजनीतिकवादों, सामाजिक पद्धतियों और संस्कृतियों की व्याख्या कर हम अनेक विरोधाभासों को समन्वय में बदल सकते हैं, संघर्षों को शांति और मैत्री के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं । (युवाचार्य महाप्रज्ञ) जैनधर्म ने आत्मानुशासन प्रदान किया। उसकी भाषा अहिंसा और अपरि ग्रह की भाषा है । आज उसी भाषा को पढ़ने, दोहराने की आवश्यकता है। जितनी अहिंसा बढ़ेगी, प्रेम बढ़ेगा, अपरिग्रह बढ़ेगा उतना ही मनुष्य की, देश और समाज की विषमता दूर होगी और एकता एवं समानता का नवीन राजमार्ग तयार होगा, विश्व-बोध की भावना का नया सूर्य मिलेगा। परंतु जैनमत की इस समन्वय या एकता के सूत्र को शब्दों से नहीं अन्तरात्मा की अनुभूति से प्राप्त करना होगा, यही आंतरिक अनुभूति मानवता की खोज है, विश्व एकता का द्वार है । विश्व की संस्कृति मनुष्य मात्र की संस्कृति रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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