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________________ विश्व एकता के प्रति मैत्रीभाव रखते हैं । धर्म की मित्ति इतने तक सीमित नहीं रह जाती। उसका दायरा तो व्यापक और विश्व भर में व्याप्त है उसकी भित्ति है समूचे संसार के प्रति मैत्रीभाव रखना प्रत्येक प्राणी को आत्म-तुल्य समझना । किसी को घृणा की दृष्टि से मत देखो, धर्मप्रचार के पन्थ चाहे अलग-अलग हो, पर सबकी आत्मा परमात्मा स्वरूप है, कोई किसी से कम नहीं। यदि इस कथन को गहनता से हृदयंगम किया जाए, उसे समझ-परख कर जीवन में उतारें तो न केवल एक वर्ग या सम्प्रदाय के भेदभावों का निराकरण हो सकता है बल्कि देशों के बढ़ते पारस्परिक मनमुटाव को, शीत युद्ध के वातावरण को मैत्री, सहिष्णता और एकता में परिवर्तित कर सकते हैं। भगवान महावीर कहते हैं-हे मनुष्य ! जिसे तू मारना चाहता है, वह भी तेरे ही जैसा है, तेरी तरह वह भी सुख दुख का अनुभव करता है । जिसे तू अधीन बनाना चाहता है । जिसे दुःख देना या सताना चाहता है वह भी तो तेरे ही जैसा प्राणी है, यहां आकर विश्व एकता या मानव एकता के द्वार स्वतः खुल जाते हैं, परन्तु आज ये विकट रूप में बन्द हैं इन्हें खोलने की प्रेरणा जैनमत से मिलेगी, महावीर के निर्दिष्ट मार्ग पर चलने से हम अपने अभीष्ट को संप्राप्त कर सकते हैं, उन्होंने कहा है-दाणाण सेट्ठ अभयप्ययाणं अर्थात् दोनों में सबसे श्रेष्ठ है अभयदान । हम अभय का, निर्भय का वातावरण विश्व में कायम करें। भय की मौजूदगी में कोई धर्म नहीं ठहर पायेगा, वह स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकता । भय हमें नीचे गिराता है, अधःपतन की ओर धकेलता है । जब हम स्वयं डरते हैं तभी दूसरों को डराने का उपक्रम करते हैं । निर्भय होने पर ही हम सत्य के, विवेक के मार्ग के राही बन सकते हैं । अहंकार भी विषमता और वैरभाव का अभिवर्द्धन करता है । अहंकार वश मनुष्य न जाने कितने अनर्थ करता है, जाति, समाज और राष्ट्र के हितों का हनन करता है. विश्व शांति के मार्ग का अवरोधक बनता है । आज सर्वत्र सामाजिक वषम्य, आर्थिक वैषम्य, वैचारिक वैषम्य, मानसिक वैषम्य से एकता का वातावरण परिदूषित हो रहा है । जैनमत आत्महित की सीमा का अतिक्रमण कर लोकहित की श्रेष्ठता और वरीयता का प्रतिपादन करता है । उपाध्याय अमर मुनि का कहना है "जैन दर्शन की निवृत्ति का मर्म यही है कि व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति । लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों एवं द्वन्द्वों से दूर रहें, यह जैन दर्शन की आचारसंहिता का पहला पाठ है । अपने व्यक्तिगत जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर ही समाज कल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैनदर्शन का पहला नीतिधर्म है। जैनमत में सर्वोदय की, सबके कल्याण की बात पर ज्यादा जोर दिया गया है, यही मानवतावाद है। जहां तक हो सके दूसरे के दुःख को कम किया जाए।" पाकिस्तान के प्रसिद्ध कवि फैज अहमद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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