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________________ विश्व एकता सुख और आनन्द की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य के जीवन की बलवती इच्छा होती है । इस इच्छा - स्पृहा की संपूर्ति के लिए मनुष्य अधिकाधिक संग्रह परिग्रह करने में अंधाधुंध लगा रहता है । आज हमारे चारों ओर का वातावरण दूषित है, जल, वायु सभी पर्यावरण के शिकार हैं। बाजार में जो मी आवश्यक खाद्यसामग्री उपलब्ध है. उसे भी पूर्णतः शुद्ध हम नहीं कहेंगे, मिलावट का रोग उन्हें परिग्रह किये हैं । पहले, अभी २५-३० वर्ष पूर्व ऐसी बातें शाजोनादिर ही देखने में मिलती थीं परन्तु आज परिस्थितियां एकदम विपरीत हैं । सभी पर धनी होने का भूत सवार है, धनी होना बुरा नहीं, प्रत्येक को धनवान बनने का अधिकार है, प्रत्येक को बंगला, कार हासिल करने का अधिकार है। यही तो आर्थिक स्वतन्त्रता है लेकिन इस स्वतन्त्रता की संप्राप्ति के लिए हम उचित-अनुचित भूल बैठे हैं। राजनैतिक क्षेत्र में देखिए — वहां भी हिंसा का बोलबाला है, शस्त्रीकरण की होड़ ऐसी है कि आश्चर्य होता है, आदमी खुद अपनी सत्ता मिटाने का भयानक, हिंसात्मक कुचक्र चला रहा है । संसार विश्वयुद्ध के सबसे भयावह और विध्वंसकारी कगार पर आकर खड़ा हो गया है, तनिक-सा प्रसाद उसकी जीवन लीला ममाप्त करने के लिए काफी है ऐसी विषम स्थिति में यदि हम जैनमत के सिद्धांतों को, भगवान महावीर के जीवनादर्शों को उतारें, तदनुकूल आचरण करें तो बहुत कुछ सीमा तक हम विनाश के दुःख के, निराशा के, हिंसा - अत्याचार के काले मेघों को छितरा सकते हैं । अभिमान, भय, घृणा, काम, क्रोध, शोक, मोह आदि एकता की भावना के विरोधी और हानिकारक तत्त्व हैं और इन्हें हम हिंसा का नानाविध रूप कह सकते हैंअप्रादुर्भावः रूनु रागादीनां भवत्य हिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिः हिंसा जिनागमस्य संक्षेपः ॥ समझें, उन्हें जीवन में ( पुरुषार्थासिद्धयुपाव, ४४ ) यदि हम विश्वमैत्री, विश्व बन्धुत्व की भावना को साकारित करना चाहते हैं तो अहिंसा की शरण में जान होगा, जैनमत के भलोक द्वारा संसार में व्याप्त हिंसा, बैर, शत्रुता के अन्धकार को नष्ट करना होगा । आचार्यवर श्री तुलसी ने कहा है-धर्म की मूल भित्ति हैं विश्व बन्धुता, विश्वमंत्री | व्यक्ति अपने परिवार के प्रति, अपने अपने अपने इष्ट मित्र के प्रति मैत्रीभाव रखता है, यह कोई खास बात नहीं, पशु-पक्षी भी अपनी संतान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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