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वृक्ष हमारे लिए पूज्य हैं
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है और इस आंतरिक शुन्यता को भरने के लिए धर्म तथा अध्यात्म की शरणस्थली आवश्यक है। नैतिक आचरण, संयम और अहिंसा का पथ मनुष्य भूल गया है। जब तक अहिंमा के 'महापथ' की ओर उसके चरण आगे नहीं बढ़ेंगे वह संसार में सुखी नहीं हो सकता, समाज और राष्ट्र को सुखी नहीं बना सकता । अपनी सर्वांगीण उन्नति के लिए हमें भौतिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना होगा। अपने अस्तित्व के साथ वृक्षों के, वनों के अस्तित्व को महत्त्व देना अपेक्षित है । जितना अधिक वृक्षों के निकट जाएंगे प्रकृति की कोड़ में बैठेंगे, पशु-पक्षी के प्राणों की रक्षा करेंगे उतना ही अधिक हम प्राणवान्, शक्तिमान् तथा ऊर्जस्वित होंगे । हमारा चिर विकास प्रकृति के, वृक्षों के चिर साहचर्य से ही सम्भव होगा । वृक्ष -संरक्षण परिस्थिति [इकॉलोजी] का ही संरक्षण है, यही अहिंसा-धर्म का अनुपालन है।
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