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________________ अध्यात्म के परिपार्श्व में विकार उसे हीनत्व की ओर ले जाते हैं, उसे दानव तथा राक्षस बनाते हैं । ब्रिटेन के कवि वर्न्स का तो यह भी कहना है www ४८ आह ईश्वर आदमी क्या है; वह कैसा सीधा-सा लगता है लगातार हथकंडों के बल पर बढ़ने की कोशिश करता है गहराई और छिछलेपन के साथ देवता है । पर वहां कल्मषता भी अकेली है सब कुछ मिलाकर वह शैतान के लिए भी भारी पहेली है । मार्ग दर्शाती है, लेकिन सूझता और अज्ञानता के जब हम मनुष्य को बेतहाशा वृक्षों को काटते देखते हैं तो उसका वह हिंसक रूप सामने आता है । वह दानव बन जाता है । प्रकृति तो मनुष्य को मानवता प्रदान करती है, उसके स्वाभाविक धर्म का भौतिकता की चकाचौंध से उसे सम्यक् रास्ता नहीं गर्त में गिरता चला जाता है । प्रकृति हमारी मां है, उसमें ममता है, स्नेह है, वात्सल्य भाव है । हम जितना अधिक प्रकृति के पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों सान्निध्य में रहेंगे उतना ही अधिक मानवीय गुणों से सम्पन्न होंगे | आज मनुष्य में मानवता की कमी है, मानव मूल्यों का अभाव है । मानवतावाद (Humahatarianism ) के उच्चादर्शों को जितना अधिक शीघ्र अंगीकार करेंगे उतना ही अधिक हमारा जीवन सुख-शांति से पूर्ण होगा । पश्चिमी सभ्यता की अंधी नकल श्रेयस्कर नहीं हो सकती, हमें विवेकशील और प्रज्ञावान बनकर कर्मक्षेत्र में पदार्पण करना चाहिए। हम अपनी जमीन पर खड़े हों, अपने चिन्तन से प्रेरणा अर्जित करें और अपने को पुनरन्वेषित करने का क्रम जारी रखें । मात्र भौतिक पदार्थों की उपलब्धि जीवन का महद् उद्देश्य नहीं माना जा सकता । अर्थार्जन जीवन के लिए जरूरी है, मगर उसे ही सब कुछ नहीं समझना चाहिए । परिग्रह- जनित प्रगति कलह-संघर्ष, वैर, हिंसा उत्पन्न करती है । 'आचारांग' (विमोक्ष, १३) में एक सूत्र है - "हरिएसु ण णिवज्जेज्जा, थंडिलं मुणि आसए", अर्थात् मुनि हरियाली पर न सोए, स्थण्डिल (हरित और जीव जन्तु रहित स्थान ) को देखकर वहां सोए । हरियाली पर न सोने से अभिप्राय यही है कि वनस्पति की, पेड़-पौधों की शस्यश्यामला धरती की पूर्णतः सुरक्षा की जाए । वन-वृक्ष हमारी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति के साधन हैं, साध्य नहीं । हमारा जीवन इनके अभाव में शुष्क हो जाएगा । आज मनुष्य ने भौतिक उन्नति के शिखरों का संस्पर्शन भले ही कर लिया हो, वह आंतरिक रूप से खोखला अनुभव करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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