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वृक्ष हमारे लिए पूज्य हैं
४७ कौटिक हों कलधौत के धाम,
करील की कुंजन ऊपर वारों। करील-कुंओं की पावन स्थली वृन्दावन में जाकर देखिए, अब वहां कितने करील के वृक्ष हैं ! मनुष्य की लोभ-वृत्ति ने न जाने कैसे-कैसे वृक्षों को अपना ग्रास बनाया है। परिणाम कितना भयानक हुआ है, यह सर्वविदित है । मनुष्य जीवन की बका प्रकृति के अस्तित्व से जुड़ी है । प्रकृति नहीं, पेड़पौधे नहीं तो मनुष्य नहीं। मनुष्य को अपने अस्तित्व के लिए पेड़पौधों के अस्तित्व को बचाना होगा, पर्यावरण का संरक्षण करना ही पड़ेगा।
'रामचरितमानस' में वन-सम्पदा, वृक्ष-राशि सभी का अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है। 'उत्तरकांड' में काकभुशुण्डि जिस पर्वत पर बसता है वहाँ पीपल के वृक्ष हैं, वहां वह ध्यान, जप, तप करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है और वटवृक्ष के नीचे बैठकर हरिकथा के प्रसंग कहता है, अनेक पक्षी उस कथा का श्रवण करते हैं
तिन्ह पर एक बिटप बिसाला, वट पीपर पाकरी रसाला । पीपर तरु तट ध्यान सो धरई, जाप जग्य पाकरि तर करई । आंब छांह कर मानस पूजा, तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा । वर वट कह हरिकथा प्रसंगा, आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा ।
-उत्तरकांड, ५७ 'नहि मानुषात् श्रेष्ठतरो हि किंचित्' द्वारा मनुष्य की श्रेष्ठता का बखान किया गया है और 'ऐतेरेयोपनिषद्' (११३१३) में कथा है कि गौअश्व आदि की रचना देखकर देवता असंतुष्ट हुए, उन्होंने जब मनुष्य का शरीर देखा तो सानन्द उछल पड़े। सभी देवताओं ने मनुष्य के शरीर को अपने आवास-योग्य मान लिया। हमारे धर्मग्रन्थों में मनुष्य की बड़ाई का खूब वर्णन किया गया है। श्री अरविन्द मनुष्य को आध्यात्मिक विकास का प्रतीक मानते थे । पंत को लगा कि संसार में मनुष्य के लिए कुछ कमी नहीं, यदि वह मानव बना रहे। इमर्सन को मनुष्य 'भग्न देवता' मालूम पड़ा। लेकिन मनुष्य में देवत्व देखने के साथ उसमें दानत्व भी देखा जा सकता है। रस्किन का कहना है कि आदमी एक हाथहीन जहरीला मकड़ा है, जो खून चूस सकता है, डंक मार सकता है, पर कभी कुछ बुन नहीं सकता। मार्क ट्वेन तो मनुष्य को सर्वाधिक घृणित जीव मानता है । मनुष्य में जो बुराई है वह है उसकी हिंसा-वृत्ति, लोम-क्रोध की भावना, ईर्ष्या-द्वेष का भाव । यही
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