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अध्यात्म के परिपाश्व में
स्वास्थ्य संगठन ने उस भोजन को लाभदायक माना जिससे मनुष्य सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक रूप में स्वस्थ रहे, जो उत्तेजक न हो। उत्तेजक भोजन विकार उत्पन्न करता है। शाकाहार अहिंसा का पथ है, प्रदूषण से मुक्त होने का रास्ता है । हमें सम्प्रदाय, जातिवाद से ऊपर उठकर काम करना चाहिए। शाकाहार सम्प्रदाय या धर्म से सम्बन्ध नहीं रखता, यह तो स्वास्थ्य से सम्बन्धित है। हमें धर्म, सम्प्रदाय को संकीर्णता से नहीं अपनाना चाहिए। शुद्ध मानवीय दृष्टि से काम लेना चाहिए और अपने को साम्प्रदायिकता के अंधकार से दूर रखना चाहिए, अहिंसा, दया, सद्भावना के दीपक जलाने चाहिये
जिन चिरागों से जाआस्सुब का धुआं उठता है ।
उन चिरागों को जला दो तो उजाले होंगे ।। जैनधर्म-दर्शन पर्यावरण की शुद्धि पर विशेष बल देता है और व्यावहारिक रूप में अहिंसावादी होने के कारण शाकाहारी है। जीवों पर दया-करुणा करना उसका प्रमुख विधान है। प्रश्न यह है कि इस औद्योगिक क्रांति के बढ़ते चरणों में विध्वंस से हम पर्यावरण को कैसे बचा सकते हैं ?
जहां संयम-संतुलन नहीं, वहीं पर्यावरण की समस्या है, प्रदूषण है, हिंसा है, मोहातिरेक मूर्छा है, परिग्रह है, द्वेष और घृणा है। वनस्पति, पेड़-पौधे, वनराजि, नदी, पशु-पक्षी सभी के जीवन में संयम-सुरक्षा की भावना हो । सह-अस्तित्व पर विश्वास हो तो न हिंसा होगी, न घृणा, न प्रदूषण । लोभ-मोह हमारे पर्यावरण को दूषित करने के मूल कारण हैं और यही हिंसा की वृत्ति भी है । आज अपरिग्रह और अहिंसा का व्रत लेकर आगे बढ़े तो इस धरती को अवश्य प्रदूषण-मुक्त किया जा सकता है। हमारा समाज सुखी और समृद्ध हो सकता है ।
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